गैस होगी न कोयला होगा
चूल्हा ग़मजदा मिला होगा
पेट रोटी टटोलता हो जब
थाल में अश्रु झिलमिला होगा
भूख की कैंचियों से कटने पर
सिसकियों से उदर सिला होगा
चाँद होगा न चांदनी होगी
ख़्वाब में भी तिमिर मिला होगा
भोर होगी न रौशनी होगी
जिंदगी से बड़ा गिला होगा
लग रहा क्यूँ हुजूम अब सोचूँ
मौत का कोई काफिला होगा
बेबसी की बनी किसी कब्र पर
नफरतों का पुहुप खिला होगा
अब बता "राज"दोष है किस का
जिंदगी ने उसे छ्ला होगा
Comment
प्रिय प्राची जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ
हार्दिक आभार विनीता शुक्ल जी बहुत ख़ुशी है आपको ग़ज़ल पसंद आई
ह्रदय कचोटने वाले भावों को बहुत खूबसूरती से पेश किया गया है.. इस संवेदनात्मक ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीया राजेश जी
अद्भुत एवं प्रभावी अभिव्यक्ति. बधाई राजेश कुमारी जी.
पुनः हार्दिक आभार सौरभ जी |
संशोधन का उचित प्रयास हुआ है, आदरणीया राजेश जी. बह्र पर मन जमता ज अरहा है.
वैसे क़ब्र वाले मिसरे पर कुछ विशेष हुआ क्या ?
सादर
आदरणीय रविकर भाई हार्दिक धन्यवाद सच में इस मंच पर हम सभी सीख रहे हैं
छला जिंदगी ने उसे, वो नफरत का फूल ।--गजल से
सीख रहा नित गजल के, सभी जरुरी रूल ।।-रविकर के लिए
आदरणीय राजेश दी ।
शुभकामनायें ।
उन्नत भाव ।।
आदरणीय सौरभ जी आपके कहे के अनुसार एडिट कर रही हूँ
बशीर बद्र के उद्धृत मतले को देखिये, काफ़िया ’आ’ ही होगा. उला के ’आसरा’ और सानी के ’क्या’ में मात्र ’आ’ ही कॉमन हैं. जबकि आपके प्रस्तुत मतले में उला के ’कोयला’ और सानी के ’जला’ के हिसाब से ’अला’ कॉमन हो गये हैं. फिर हम सिर्फ़ ’आ’ को काफ़िया कैसे ले सकते हैं, है न ?
सादर
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