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जहर उसने ज्यों प्याले से पिलाया दोस्तों

चुन चुन के  ख्वाब मेरे जलाया दोस्तों 

खूँ में उसने आज ये  क्या मिलाया दोस्तों 

रब से मिलती रही औ  घूँट भरती  रही 

 जहर उसने ज्यों  प्याले से  पिलाया दोस्तों 

चाहत घर की रही और मकाँ  मिल गया 

कैसा किस्मत ने   देखो  गुल खिलाया दोस्तों 

 जिस्म अपना रहा औ रूह उसकी मिली 

सब कुछ उसकी लगन में  है  भुलाया दोस्तों 

 पीर जमती रही  औ  पर्वत बनता रहा 

आंसुओं की तपन  ने ना पिघलाया दोस्तों 

खुद ही रख दूँ  मैं    लकड़ी   चिता पर  मेरी

मेरी  जाँ ने मुझे  कितना   रुलाया दोस्तों 

आँखें बंद हो मेरी        और मैं पाऊं उसे

जिसकी मुरली ने मुझको है  बुलाया  दोस्तों 

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Comment

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Comment by नादिर ख़ान on November 22, 2012 at 3:33pm

चाहत घर की रही और मकाँ  मिल गया 

कैसा किस्मत ने   देखो  गुल खिलाया दोस्तों 

मकान और घर का फर्क समझती पंक्तियाँ ,

बहुत खूब ....

Comment by राजेश 'मृदु' on November 22, 2012 at 3:22pm

एक उद्दात कल्‍पना को मूर्त करती आपकी रचना बेहद पसंद आई खासकर ये पंक्ति

आँखें बंद हो मेरी        और मैं पाऊं उसे

जिसकी मुरली ने मुझको है  बुलाया  दोस्तों


सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 22, 2012 at 3:09pm

ह्रदय से आभार शालिनी कौशिक जी 

Comment by shalini kaushik on November 22, 2012 at 3:06pm

rajesh ji aapki abhivyakti man par gahrai tak asar kar gayi .bahut hi bhavpoorn abhivyakti .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 22, 2012 at 2:55pm

फूल सिंह जी हार्दिक आभार मेरी रचना उसके भाव आपको पसंद आये 

Comment by PHOOL SINGH on November 22, 2012 at 2:42pm

राजेश जी नमस्कार..

पीर जमती रही  औ  पर्वत बनता रहा

आंसुओं की तपन  ने ना पिघलाया दोस्तों

खुद ही रख दूँ  मैं    लकड़ी   चिता पर  मेरी

मेरी  जाँ ने मुझे  कितना   रुलाया दोस्तों

आँखें बंद हो मेरी        और मैं पाऊं उसे

जिसकी मुरली ने मुझको है  बुलाया  दोस्तों

अति सुंदर पंक्ति......

फूल सिंह

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