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मैं जिस्म का सौदा जरुर करती हूँ, लाला.. . ईमान का नहीं |"
चरित्र किसी पेशे का मोहताज नहीं होता
बधाई, आदरणीय बागी जी. सादर
आदरणीय गणेश जी
गणेश जी,
क्या इसको मैं अपनी वाल पे डाल सकता हूँ ??
मेरा नमक अभी मरा नहीं है । तुम्हारी तरह इमान डिगा नहीं है । गजब का तमाचा मारा है
"देख क्या रहे हो लाला, यह पैसा काट लो.. . . तुम्हारे पास नमक हो ना हो, मेरे पास नमक अभी भी है । मैं जिस्म का सौदा जरुर करती हूँ, लाला.. . ईमान का नहीं |" इस एक संवाद ने, दोगले समाज के नैतिक मानदंडों पर जो प्रहार किया है- शब्दातीत है. एक बेहद सशक्त और मन को छूने वाली कथा. बधाई स्वीकार करें.
गणेश जी, मन की सफ़ाई और सच्चाई को महानता देती
आपकी लघु कथा अच्छी लगी । बधाई ।
विजय निकोर
सरल शैली में बहुत बड़ी-गहरी चोट..! वाह..क्या बात है..! आपको ढ़ेरों बधाई।
कौन क्या करता है से अधिक कौन कैसे करता है यह अधिक महत्त्वपूर्ण है. लाला और लैला ईश्वर प्रदत्त देही को जिलाये रखने के लिए जो कुछ करते हैं यह अलग मुद्दा है. किन्तु, मानवीय पहलुओं पर उनकी व्यक्तिगत सोच कितना बड़ा अंतर सामने रखती है ! यही अंतर उनका व्यक्तित्व बनाता है.
पाप और पूण्य एक लिहाज से अशिक्षित तबके या शिक्षित किंतु वैचारिक रूप से अविकसित लोगों का भ्रमकारी अनगढपन हो सकता है लेकिन समाज में मनुष्यत्व और नीतिगत चरित्र को ज़िन्दा रखने का कितना महत्त्वपूर्ण कारण होता है यह तथ्य प्रस्तुत लघुकथा बखूबी उभारती है और सामने लाती है.
एक सशक्त कथानक को शब्दबद्ध करने के लिए हार्दिक बधाई, गणेशभाई.
बधाई गणेश.
कहानी की शैली बहुत सुंदर लगी और लैला के संवाद दिल को छू गये. बेबसी में भी मन साफ है. उसका पेशा उसकी मजबूरी है पर ईमान उसका धर्म. वाह !
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