समय से परे, अगर जो कभी हम मिले
अलग से ही कुछ नाम से
अलग से ही रंग-रुप में
क्या तुम मुझे पहचान लोगे?
शायद मेरा स्पर्श या हृदय का स्पन्दन अलग हो,
मेरी बोली, मेरी अभिव्यक्ति अलग हो,
मेरा चेहरा या मेरे भाव अलग हो,
क्या तुम मुझे पहचान लोगे?
गर पवन बन मैं छु लूं तुम्हे,
या वृष्टि बन तुम्हारे रोम-रोम को भिगाउँ ,
नीर बन अगर में तुम्हारी प्यास बुझाउँ,
क्या तुम मुझे पहचान लोगे ?
अगर के बेल बन तुमसे लिपट जाउँ,
सागर की लहरें बन तुम्हारे चरणो में आउँ ,
या चाँदनी बन तुम पर छा जाउँ ,
क्या तुम मुझे पहचान लोगे?
Comment
वक्त यदि दिशाएं बदल दे तो ऐसे ही प्रश्न उठते हैं बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति. सादर हार्दिक बधाई स्वीकारें आद. अन्वेक्षा जी.
Vijay Nikore , Saurabh Pandey, Dr Prachi Singh , Dr Ajay Khare ji and Rajesh Kumar Jha ji..Thanks a lot to all of U
बहुत कम अवसर ऐसे होते हैं जब इतनी सधी रचना से साक्षात्कार होता है, कहीं कोई अटक नहीं, कोई शब्दों से चमत्कार उत्पन्न करने की कोशिश नहीं सीधे बात करती है आपकी यह रचना
ANVESHA JI ITNI KOMAL ANUBHUTI KE LIYE BADHAI
प्रेम की बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति..वाह!
हार्दिक बधाई इस रचना पर प्रिय अन्वेषा जी
प्रेम की पराकष्ठा ऐसे प्रश्नों से कितनी सुलभ लगती है ! बधाई.. .
सतत अभ्यासरत हों
आदरणीय अन्वेषा जी,
वाह..वाह... वाह !
क्या बिम्ब हैं ! क्या भाव हैं ! क्या अभिव्यक्ति है !
आपको अनेकानेक बधाई।
विजय निकोर
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