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नवगीत: अब तो अपना भाल उठा... संजीव 'सलिल'

नवगीत:
अब तो अपना भाल उठा...
संजीव 'सलिल'
*
बहुत झुकाया अब तक तूने 
अब तो अपना भाल उठा...
*
समय श्रमिक!
मत थकना-रुकना.
बाधा के सम्मुख
मत झुकना.
जब तक मंजिल
कदम न चूमे-
माँ की सौं
तब तक
मत चुकना.

अनदेखी करदे छालों की
गेंती और कुदाल उठा...
*
काल किसान!
आस की फसलें.
बोने खातिर
एड़ी घिस ले.
खरपतवार 
सियासत भू में-
जमी- उखाड़
न न मन-बल फिसले.
पूँछ दबा शासक-व्यालों की
पोंछ पसीना भाल उठा...
*
ओ रे वारिस
नए बरस के.
कोशिश कर
क्यों घुटे तरस के?
भाषा-भूषा भुला
न अपनी-
गा बम्बुलिया
उछल हरष के.
प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
बजा मंजीरा ताल उठा...
*

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on December 22, 2012 at 4:45pm

 आदरणीय संजीव सर जी सादर प्रणाम
बहुत सुन्दर गीत रचा है आपने
बेहतरीन शब्दावली के साथ साथ प्रवाह मन में हलचल उठाने पर्याप्त है
बहुत बहुत बधाई आपको

Comment by sanjiv verma 'salil' on December 22, 2012 at 4:09pm

pradeep ji

abhar. apse sahmat hoon.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 21, 2012 at 4:49pm

आदरणीय सलिल जी, सादर 

यदि खर पतवार हट जाए तो राष्ट्र उत्थान बगैर प्रयास के हो जाये.

बधाई 

Comment by sanjiv verma 'salil' on December 20, 2012 at 7:47am

सौरभ जी!
हौसला अफजाई का शुक्रिया.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 19, 2012 at 11:18pm

शब्द चित्र प्रस्तुत करें तो कविता होती है विधा चाहे कई हो. आचार्यजी, आपने इस नवगीत के जरिये माटी की गंध में रचे-बसे कृषक-श्रमिकों को जो मान दिया है वह आपकी सहृदयता को उजागर कर रहा है. शब्द-शब्द सुगढ तो हैं ही, रचना की अंतर्धारा आह्वान करती हुई है. गेयता और भाव संप्रेषण का सुन्दर उदाहरण है यह रचना.

सार्थक गीत के लिये आपको सादर प्रणाम.

Comment by MAHIMA SHREE on December 19, 2012 at 11:29am

ओ रे वारिस
नए बरस के.
कोशिश कर
क्यों घुटे तरस के?
भाषा-भूषा भुला
न अपनी-
गा बम्बुलिया
उछल हरष के.
प्रथा मिटा साकी-प्यालों की
बजा मंजीरा ताल उठा...

वाह !! बहुत ही सुन्दर गीत..आदरणीय संजीव सर... मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें /


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 19, 2012 at 10:57am

बहुत सुन्दर प्रवाह मान ओजपूर्ण नव गीत हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सलिल जी 

Comment by sanjiv verma 'salil' on December 19, 2012 at 10:32am

सीमा जी!
गीत प्रस्तुत करते ही आपके द्वारा पढ़कर तत्परता से दी गयी सटीक प्रतिक्रिया मन को प्रसन्न कर गयी. हार्दिक आभार.

Comment by seema agrawal on December 19, 2012 at 10:02am

बहुत सुन्दर और भाव समृद्ध नव गीत आदरणीय सलिल जी ......एक एक पंक्तिप्रवाहमान हो  अलख जगाती दिख रही है ......

.अनदेखी करदे छालों की 
गेंती और कुदाल उठा...हौसलों को दिशा देती हुंकार 

पूँछ दबा शासक-व्यालों की 
पोंछ पसीना भाल उठा.......वाह बहुत खूब स्वाभिमान से ओतप्रोत सन्देश 

भाषा-भूषा भुला
न अपनी-
गा बम्बुलिया 
उछल हरष के.
प्रथा मिटा साकी-प्यालों की 
बजा मंजीरा ताल उठा......इस प्रकार के शब्दों के प्रयोग गीत को जो सौन्दर्य और रोचकता प्रदान कर रहे हैं वो एक अनुभवी कलम ................................से ही निकल सकते हैं 

हार्दिक  बधाई एवं धन्यवाद 

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