रक्तधार
विगत संबंधों से स्पंदन करती
पुरानी रक्तधार
सूखी नदी-सी सूख चुकी है,
पर मात्र स्मृति किसी एक संबंध की
जैसे नदी के सूखे तल को
आ कर ज्वार-भाटा-सी भिगो देती है।
विसंगत प्रसंगों में समन्वय ढूँढते
कितने वियोगाँत दृश्य
दुहरा जाते हैं विप्लव-से झट से
मेरी आहत आँखों में ...
आज मैंने डाल पर देखा
कोई उदास आँखों वाला
ठिठुरता रक्ताक्त पक्षी,
आशंकित,
झिझक रहा था लौट आने को डाल पर,
और फिर जा बैठा वह उसी डाल पर
क्षत-विक्षत हुआ था
जिस डाल पर वह बार-बार।
... और मुझको लगा
उस पक्षी का नाम ‘विजय’ था।
---------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया विनीता जी:
मेरी कविता की ऐसी सराहना से
मनोबल बढ़ाने के लिए आपका आभारी हूँ।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया मंजरी जी:
सराहना के लिए आपका अतिशय धन्यवाद।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीया आरती जी:
आपके उत्साहवर्धक शब्दों को नमन।
मेरा हार्दिक धन्यवाद।
सादर,
विजय निकोर
अत्यंत संवेदनशील एवं मार्मिक रचना. बहुत बहुत बधाई. ADARNIY VIJAY JI BAHUT KHUB
आदरणीय निकोरे जी, मुझे यह रचना पढ़ यह समझ नहीं आ रही की मेरे स्मृति पटल को
अंतर्मन की बेबसी और पीड़ा जैसे बह निकली है शब्दों में और अपने प्रवाह के साथ बहाए ले जा रही है पाठक को अंत तक जहां वो भी इन शब्दों के दर्पण में अपने ही बिम्ब को अनुभव कर रहा है.
इस पीड़ाजन्य मर्मस्पर्शी अंतर्भाव सम्प्रेषण के लिए बधाई नहीं कहूंगी..
सादर.
अत्यंत संवेदनशील एवं मार्मिक रचना. बहुत बहुत बधाई.
आदरणीय संदीप जी:
आपका हार्दिक आभार।
विजय निकोर
आदरणीय अरुण जी:
यह कविता मेरी नहीं है, यह जिस किसी की भावनाओं को छू जाए,
उसी की है ... अत: आपकी अपनी है ... पर इसका दर्द आपको न
देना चाहूँगा। आप प्रसन्न रहें।
विजय निकोर
प्रणाम विजय भाई..आपकी रचना पड़कर निशब्द हु...बेहतरीन पंक्तियों से संजोया है आपने कविता को..बधाई स्वीकारें ..
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