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हर रात

देखता हूं

एक नदी का सपना

जो भरती है

निर्मल धार

उष्‍ण अंतस की गहराई तक

नसों में बहते लावे

जिसके घने स्‍पर्श से

जीवंत हो उठते हैं

पर आंख खुलते ही

घबरा जाता हूं

जब देखता हूं

जलती रेत पर

फड़फड़ाते अंश को

और देह भी तब

भिनभिनाने लगती है

थके डैने थाम पंछी

भी तो सुस्‍ताते नहीं

और फिर

पन्‍नों पर दिखती है

दरिया की लकीरें

सिमटी हुई

इंच दर इंच

खूशबू के अधजले दाने

तितलियों के जले पंख

आकाशफूल

तब भी मुस्‍कुराते हैं

जाने किस अहसास से

खिन्‍न मन

ढकेल देता है

फिर से

उसी राह पर

और तब पाता हूं

कि प्रवाह बाधित नहीं था

कि खुली आंखें

देख नहीं पाती

उस धार को

जो सपने की

नदी रचती है

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 20, 2013 at 8:29am

सुन्दर रचना आदरणीय राजेश जी सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by राजेश 'मृदु' on May 17, 2013 at 2:59pm

आप सभी का हार्दिक आभार

Comment by राजेश 'मृदु' on May 17, 2013 at 2:58pm

आदरणीय वृजेश जी, आपका हार्दिक आभार कि आपने रचना को इतनी तन्‍मयता से पढ़ा । जहां तक लावे के जीवंत होने का प्रश्‍न है तो तप्‍त तरलता में दाह के वाहक ही जीवंत रह सकते हैं पर मानव को जिस तरलता की आवश्‍यकता होती है वह मृदुता का पोषक है, उसं ऊष्‍मा तो चाहिए पर दाहकता नहीं । नदी में ऊष्‍मा तो होती है पर दाहकता नहीं होती, इसी कारण मैंने नदी के निर्मल धार से उसके जीवंत होने की बात रखी है । दूसरे, थके डैने थाम पंछी/सुस्‍ताते भी तो नहीं - ऐसा करने सिर्फ पंछी तक आकर बात खत्‍म हो जाती है जबकि वहां अन्‍य भी कोई है जो सुस्‍ता नहीं रहा, उस अन्‍य को प्रकट करने के लिए ही 'पंछी भी तो' रखा गया है । सादर

Comment by बृजेश नीरज on May 16, 2013 at 11:49pm

बहुत ही सुन्दर रचना है आदरणीय। मन बहता ही चला गया कविता के प्रवाह के साथ।

आपकी रचना की कुछ पंक्तियों से कुछ शंका उपजी है जिसके संदर्भ में आपसे मार्गदर्शन चाहूंगा।

//नसों में बहते लावे

जिसके घने स्‍पर्श से

जीवंत हो उठते हैं//

मेरे विचार से लावे जीवंत ही होते हैं मरे हुए नहीं। आपका इस विषय में क्या सोचना है यह मेरे लिए उत्सुकता का विषय होगा।

//भी तो सुस्‍ताते नहीं//

यह पंक्ति यदि कुछ इस तरह होती तो शायद मेरे विचार से अधिक उपयुक्त होती।

‘सुस्ताते भी तो नहीं’

आशा है आप इन्हें मेरी आपत्तियां न मानकर अपने ज्ञान से मुझे भी सिंचित करने का कष्ट करेंगे।

सादर!

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on May 16, 2013 at 3:08pm

बड़ा प्रवाह है इस स्वपन सरिता में
सादर बधाई हो आदरणीय

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 15, 2013 at 3:26pm

पर आंख खुलते ही घबरा जाता हूं

जब देखता हूं जलती रेत पर

फड़फड़ाते अंश को

और देह भी तब भिनभिनाने लगती है

थके डैने थाम पंछी भी तो सुस्‍ताते नहीं - बहुत खूब सुन्दर भाव प्रवाह के लिए बधाई भाई श्री राजेश कुमार झा 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 15, 2013 at 1:36pm

अति सुन्दर 

सादर बधाई 

Comment by shalini kaushik on May 15, 2013 at 1:57am

बहुत सुन्दर 

Comment by विजय मिश्र on May 14, 2013 at 6:51pm
जिंदगी में सच और सपने का तफरका इतना सही बना है और फिर संघर्ष करता यह छोटा सा मन . सत्य ही बहुत सुंदर रचना राजेशजी .
Comment by राजेश 'मृदु' on May 14, 2013 at 6:51pm

सादर आभार आदरणीय श्‍याम नारायण जी एवं विजय निकोर जी

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