तू मुझमें बहती रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं उन्मादी मूढ़वत, रहा ढूँढता संग
सहज हुआ अद्वैत पल, लहर पाट आबद्ध
एकाकीपन साँझ का, नभ-तन-घन पर मुग्ध
होंठ पुलक जब छू रहे, रतनारे दृग-कोर
उसको उससे ले गयी, हाथ पकड़ कर भोर
अंग-अंग मोती सजल, मेरे तन पुखराज
आभूषण बन छेड़ दें, मिल रुनगुन के साज
संयम त्यागा स्वार्थवश, अब दीखे लाचार
उग्र हुई चेतावनी, बूझ नियति व्यवहार
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--सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
bahut sundar dohe saurabh ji shabdo ke moti bahut lubhavne lage hardik badhai aapko
प्रस्तुत दोहा-छंद रचनाओं पर उदार प्रतिक्रिया के लिए सुधीजनों और सुधीपाठकों का हार्दिक आभार
सादर
अति सुंदर दोहें .. आदरणीय सौरभ सर . शब्द जैसे माला में मोती की तरह बंधे हुए .. आकर्षित कर रहे हैं बहुत-२ बधाई आपका ..सादर
आ0 गुरूवर सौरभ सर जी, ...अतिसुन्दर...अद्भुत ..अप्रतिम दोहे । तहेदिल से हार्दिक बधाई स्वीकारें। सादर,
आदरणीय गुरू जी, बड़े ही गूढ़ अर्थों मे पगी पंक्तियाँ हैं साझा करने के लिये आभार .
सुन्दर दोहे
आभार आदरणीय-
इतने सुन्दर अन्तरंग दोहे मैंने शायद पहले कभी नही पढ़े | अंतर्मन के
अन्तः प्रेरित सुन्दर भावो से रचित दोहे की प्रशंसा हेतु शब्द नहीं है | ढेरों बधाई
आदरणीय श्री सौरभ जी | सादर
तू मुझमें बहती रही, लिये धरा-नभ-रंग
मैं उन्मादी मूढ़वत, रहा ढूँढता संग
आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी
सादर
भाव पूर्ण दोहे . साझा करने हेतु आभार
आदरणीय सौरभ भाई:
कई दिन हुए मैंने इन सुन्दर दोहों पर प्रतिकिया लिखी थी,
परन्तु वह अब यहाँ न जाने क्यूँ दिख नहीं रही। हो सकता है,
मुझसे कोई गलत बटन दब गया हो।
यथार्थ को स्पष्ट करते इन अप्रतिम दोहों के लिए शत-शत बधाई।
सादर,
विजय निकोर
सभी सुधीजनों को हृदय की गहराइयों से धन्यवाद कह रहा हूँ.
आप सभी ने प्रस्तुति को मान दे कर मेरा उत्साह बढाया है. सादर
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