रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं (ग़ज़ल "राज")
२ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २ २ १ २ २
बहर ----रमल मुसम्मन सालिम
रदीफ़ --हम देखते हैं
काफिया-- इयाँ
आज क्या-क्या जिंदगी के दरमियाँ हम देखते हैं
जश्ने हशमत या मुसल्सल पस्तियाँ हम देखते हैं
खो गए हैं ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में
गर्दिशों में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं
ख़ुश्क हैं पत्ते यहाँ अब यास में डूबी फिजाएं
आज शाखों से लटकती बिजलियाँ हम देखते हैं
आबशारों का तरन्नुम गुम हुआ जाने कहाँ अब
तिश्नगी में फड़फडाती मछलियाँ हम देखते हैं
बह गए मिलकर सभी पुखराज गिर्दाबे अलम में
बस किनारों पर सिसकती सीपियाँ हम देखते हैं
आज होठों की तबस्सुम खो गई जाने कहाँ पर
सख्त चहरों पर सभी के तल्खियाँ हम देखते हैं
क्या ख़बर तेज़ाब की शीशी कहाँ किस हाथ में हो
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं
“राज” तेरे शह्र पर ये छा गई कैसी घटायें
हर कदम पे अब धुएं की चिमनियाँ हम देखते हैं
राजेश कुमारी "राज"
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(मौलिक एवं अप्रकाशित )
जश्न ए हशमत--- गौरव का उत्सव
पस्तियाँ--- पराजय
यास----- गम ,उदासी
तीरगी------ अँधेरे
आबशारों---- झरने
तिश्नगी----- प्यास
गिर्दाबे अलम------ गम के भंवर
तल्खियाँ----- उदासी ,चिंताएं
Comment
क्या ख़बर तेज़ाब की शीशी कहाँ किस हाथ में हो
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं........कितना दर्दनाक होता है तितलियों का जलना. काश ! जलाने वाले को पता हो.
आदरणीय सौरभ जी और वीनस जी आप दोनों के मार्गदर्शन के फलस्वरूप दोनों मिसरे सुधार दिए हैं आप दोनों का तहे दिल से आभार
ओह ...
पहला तो खैर इजाफत को ही गलत बाँधा था और मुझे लगा था कि आपने त्रुटिवश दूसरे मिसरे में एक शब्द छोड़ दिया है ...
खैर सौरभ जी ने विस्तार से स्पष्ट कर ही दिया
ग़ज़ल के लिए फिर से दाद कबूल करें
सादर धन्यवाद आदरणीया
आदरणीय सौरभ जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया मिली मानो मेरा इम्तहान का नतीजा निकला हो इस ग़ज़ल से मुझे बहुत उम्मीद थी पहली बार उर्दू के इन कठिन शब्दों को ट्राई किया था कुछ न कुछ तो कमी रहनी ही थी चलो आपने इंगित किया बहुत बहुत शुक्रिया वरना तो कहाँ कमी है बस तिकड़म बाजी ही कर रही थी आपके इंगित करने पर ये मिसरे अब सुधार रही हूँ उम्मीद है अब बाबहर हो जायेंगे आपका तहे दिल से आभार ,अभी कुछ और विद्वद जनों का इन्तजार है ग़ज़ल को ,देखते हैं
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपकी इस ग़ज़ल ने हमें आपके कहे के प्रति और गंभीर कर दिया है. क्या ग़ज़ब के शेर हुए हैं ! वाह !!
आपकी इस ग़ज़ल पर व्यवस्थित बातें हुई हैं. मैं हुई चर्चाओं से सहमत हूँ. आपने वाकई डूब कर ग़ज़लगोई की है.
जहां तक उन दो मिसरों की बात है जिनकी ओर वीनसभाई ने इशारा किया है, तो वे तकनीकी रूप से बेबह्र हो रहे हैं.
आपकी ग़ज़ल की भाषा उर्दू के शब्दों से भरी है. अतः प्रयुक्त शब्दों के उच्चारण भी तदनुरूप होंगे.
पहले मिसरे में जश्न-ए-हशमत का वज़्न २१२२ होगा नकि २१२२२ जैसा कि आपने किया है.
दूसरे, चेहरे का वज़्न उर्दूदां के अनुसार २२ होता है नकि हिन्दी भाषियों के अनुसार २१२. हम चेहरा शब्द को भले चे ह रा कहें और वैसे ही पढ़ें-लिखें, लेकिन उर्दू भाषा के अनुसार इस शब्द का उच्चारण चेह्रा या चहरा होता है... . क्या कीजियेगा यही इस भाषा की परंपरा है. इसी कारण दूसरा मिसरा बेबह्र हो गया.. . :-(((
सादर
आदरणीय वीनस जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर आश्वस्त हुई की मेहनत सफल हुई एक लेखक को और क्या चाहिए
आदरणीया लाजवाब ग़ज़ल हुई है
कई अशआर ने अपने रुआब से चौंकाया ,,, इस मअयारी ग़ज़ल के लिए ढेरों दाद कबूल फरमाएं ....
राइज अल्फाज़ का अपना मजा होता है मगर जब गाढे अल्फाज़ भी अदायगी से राइज लगने लगें तो यह शाइर की जीत होती है और सबूत भी कि शाइर ने बखूबी अल्फाज़ को बरता है और ग़ज़ल को निभाया है
यह दो अशआर बहुत पसंद आए
खो गए हैं ख़्वाब के वो सब जजीरे तीरगी में
गर्दिशों में डगमगाती कश्तियाँ हम देखते हैं
आबशारों का तरन्नुम गुम हुआ जाने कहाँ अब
तिश्नगी में फड़फडाती मछलियाँ हम देखते हैं
विनम्र निवेदन है कि इन् दो मिसरों पर बहर के हवाले से नजरे सानी फरमा लें
जश्न ए हशमत कभी या पस्तियाँ हम देखते हैं
हर किसी के चेहरे पर तल्खियाँ हम देखते हैं
प्रिय प्राची जी ग़ज़ल पर आपकी प्रतिक्रिया पाकर हर्षित हूँ आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरी लेखनी और ग़ज़ल दोनों धन्य हो गई
आपका हृदय तल से आभार
बहुत सुन्दर गज़ल कही है आदरणीया राजेश जी
आज होठों की तबस्सुम खो गई जाने कहाँ पर
हर किसी के चेहरे पर तल्खियाँ हम देखते हैं ...........बहुत खूब
क्या ख़बर तेज़ाब की शीशी कहाँ किस हाथ में हो
रोज शोलों में झुलसती तितलियाँ हम देखते हैं ............सच! कितनी दर्द भरी पंक्तियाँ है.
इस खूबसूरत गज़ल पर ढेर सारी दाद क़ुबूल कीजिये
सादर.
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