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ग़ज़ल - तितलियाँ आती नहीं मकरंद पाने के लिए !

ग़ज़ल - 
हमने कुछ पौधे लगाए नाम पाने के लिए ।
और जंगल काट डाले आशियाने के लिए

टंग गए हर छत हर एक मुंडेर पर पिंजरे मिया,
हसरते सब मर गयीं चिड़िया चुगाने के लिए ।

 अब खबर में खेल में और ख़्वाब में बन्दूक हैं,
 कौन आगे आएगा बचपन बचाने के लिए ।

 पर्वतों ने आदमी को घर बनाता देखकर,
 बादलों को दे दिया ठेका भगाने के लिए  ।

 क्यों करें बर्दाश्त बादल, आखिरश वो फट पड़े
 हम हदों को लांघते थे मौज पाने के लिए ।

 उन फिराकों साहिरों फैजों ने हमको सीख दी ,
 एक शाइर शाइरी करता ज़माने के लिए ।

आदमीयत का तरक्की से है उल्टा वास्ता ,
झुग्गियां गिर जायेंगी, होटल बनाने के लिए ।

फोन ने इंसान को दे दीं हजारों मोहलतें ,
एक मैसेज कर दिया रिश्ता मिटाने के लिए ।

ये गुलों की बेरुखी है या दवाओं का असर ,
तितलियाँ आती नहीं मकरंद पाने के लिए ।
       
             {* सर्वथा मौलिक और अप्रकाशित }
                                 -   अभिनव अरुण 
                                []may-june-july2013[]

 
                         - 

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प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on July 24, 2013 at 11:18am

एक से बढ़ कर एक शेअर रचे हैं आदरणीय अरुण भाई जी, किसी एक शेअर की तारीफ करना बकिया अशआर के साथ बेइंसाफी होगी. इस मुकम्मिल कमाल के लिए मेरी दिली दाद हाज़िर है, कबूल फरमाएं. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on July 24, 2013 at 10:36am

आदरणीय अभिनव जी, आपकी इस ग़ज़ल की तारीफ़ के लिए मेरे पास अल्फ़ाज़ नही हैं, क्या कहूँ बेहतरीन ग़ज़ल आपकी, एक एक शेर असरदार बन पड़ा है, तारीफ़ क़ुबूल फरमाएँ, 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 24, 2013 at 9:19am

क्यों करें बर्दाश्त बादल, आखिरश वो फट पड़े
हम हदों को लांघते थे मौज पाने के लिए ।

 

ये गुलों की बेरुखी है या दवाओं का असर ,

तितलियाँ आती नहीं मकरंद पाने के लिए ।

वाह वाह वाह

इन दो अशार ने क्या हामी ली है ! बधाई अभिनव अरुण भाई, बहुत बहुत बधाई.

मतला भी पुरअसर है.

अन्य अशार पर थोड़ा और समय देते तो तथ्य ही नहीं तब उनका कथ्य भी बेहतर होता.

कहना न होगा सभी अशार ख़याल से हमेशा की तरह बहुत ऊँचे हैं.  देखिये न,  मेसेज   को  मेसज कर दिया होता !  इसके से को गिराना कितना मुआफ़िक होगा, यह देखने की बात है.

बहरहाल, बधाई स्वीकार करें, भाईजी.

Comment by Vinita Shukla on July 24, 2013 at 8:59am

"अब खबर में खेल में और ख़्वाब में बन्दूक हैं,
 कौन आगे आएगा बचपन बचाने के लिए ।" आज के हालातों को, ख़ूबसूरती से उकेरने वाली गजल. बहुत बहुत बधाई.

Comment by MAHIMA SHREE on July 23, 2013 at 11:47pm

पर्वतों ने आदमी को घर बनाता देखकर,
 बादलों को दे दिया ठेका भगाने के लिए  ।

 क्यों करें बर्दाश्त बादल, आखिरश वो फट पड़े
 हम हदों को लांघते थे मौज पाने के लिए । बहुत खूब आदरणीय अभिनव जी हर एक शेर एक से बढ़ कर एक है बधाई स्वीकार करें /

Comment by shubhra sharma on July 23, 2013 at 11:17pm

फोन ने इंसान को दे दीं हजारों मोहलतें ,
एक मैसेज कर दिया रिश्ता मिटाने के लिए ।

ये गुलों की बेरुखी है या दवाओं का असर ,
तितलियाँ आती नहीं मकरंद पाने के लिए ।

       
...........................क्या खूब गजल लिखी है आपने ,हर पंक्ति अपने आप में मस्त है भाई अरुण जी ,बहुत बहुत बधाई 
Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on July 23, 2013 at 11:12pm

पर्वतों ने आदमी को घर बनाता देखकर,
बादलों को दे दिया ठेका भगाने के लिए  ।..  वाह वाह  !!!

 उन फिराकों साहिरों फैजों ने हमको सीख दी ,
 एक शाइर शाइरी करता ज़माने के लिए ।..  क्या कहने, वाह  !!

फोन ने इंसान को दे दीं हजारों मोहलतें ,
एक मैसेज कर दिया रिश्ता मिटाने के लिए ।... बड़ा समसामयिक शेर बन पड़ा है |

बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय !!

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