आती है जब ग़म की आँधी , डूबता खुशी का किनारा | |
मंजिल पाने की चाहत में , कोई जीता या हारा | |
कुछ सोचें कुछ हो जाता है , मारा जाता है बेचारा | |
हार जीत के लालच में ही , बस दौड़े ये जग सारा | |
समय चक्र चलता रहता है , फूल खिलें मुरझा जाते | |
रोज नये पौधे उगते हैं , कुछ रोज कुम्हला जाते | |
टूट गिरें कितनी ही डाली , जब जब नये फूल आते | |
देख देख ये दुनिया वाले , ग़म में ही अश्क बहाते | |
सब कुछ ऊपर वाला करता , ठोकर लगना बहाना है | |
किसी के माथ पर जो गुजरा , गैरों को अफसाना है | |
कभी कहीं खुशी कहीं ग़म है , जहाँ में मुस्कराना है | |
राजा या रंक बसे जग में , पूरे दिन उड़ जाना है | |
रो धो कर काम नहीं चलता , ना दिल हाल सुनाने से | |
दीपक जो जलता रहता है , डरता है बुझ जाने से | |
कोई भी धर्म अपनाओ , जाना किसी बहाने से | |
वर्मा माया के नगरी में , डर है सब को जाने से | |
श्याम नारायण वर्मा |
(मौलिक व अप्रकाशित) |
Comment
आदरणीय ,
हम अपने इस रचना में कमियों को जानना चाहते हैं , एक बार आप के राय की अपेक्षा है |
आपकी राय सदा ही सिरोधार्य है |
बहुत बहुत धन्यवाद
सादर ,
क्या आप इसे कम समझते हैं कि बावज़ूद इतनी कमियों के आपका संप्रेषण इस मंच पर स्थान पाता है ?
आदरणीय, यदि अपनी रचना को छंदबद्ध करने के प्रयास में इसे ताटंक छंद के विधान परआपने कसना चाहा है तो आपका स्वागत है. लेकिन, बिना स्वयं संतुष्ट हुए इसे क्यों पोस्ट किया आपने, यह मेरी समझ में अभी तक नहीं आया ? आपकी प्रस्तुत रचना किसी तौर पर ताटंक के विधान को नहीं मानती. तभी हमने इसे चौपाई के करीब का समझा था. वैसे चौपाई के तौर पर भी यह कमतर ही है.
आप छंदमुक्त गेय कविता ही लिखे होते, सरजी. हम पाठकों पर आपका महती उपकार होता.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
प्रणाम ,
हमने इसे ताटंक मात्रिक छंद पर लिखा | जिसमें १६ , १४ पर यति होती है और आखिर में म गण होना लाजमी है | परन्तु रचना करते समय वैसे शब्द जेहन में नहीं आते , इससे मैं मजबूर हूँ |
आपकी राय सदा ही सिरोधार्य है |
बहुत बहुत धन्यवाद
सादर ,
आपने किस छंद पर प्रयास किया है, भाई, इसे आप पहेली की तरह न रखें तो कई प्रयासकर्ता आपके प्रयासों से कई तथ्य समझ पाते. खैर, आपको तो कह-कह कर मै अब थक-सा रहा हूँ. मुझे तो आपका प्रयास चौपाई छंद लग रहा है.
सधन्यवाद
आदरणीय वर्मा जी , सुन्दर रचना की बहुत बहुत बधाई !
सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई श्री श्याम नारायण वर्मा जी
समय चक्र चलता रहता है , फूल खिलें मुरझा जाते | |
रोज नये पौधे उगते हैं , कुछ रोज कुम्हला जाते... बहुत -२ बधाई .. बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति.. |
कुछ सोचें कुछ हो जाता है , मारा जाता है बेचारा | |
हार जीत के लालच में ही , बस दौड़े ये जग सारा | |
बहुत खुब सूरत रचना है आपकी ,आदरणीय वर्मा जी आपको बधाई
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