इससे पहले कभी
कहा नही जाता था
तो बम के साथ हम
फट जाते थे कहीं भी
और उड़ा देते थे चीथड़े
इंसानी जिस्मों के...
अब कहा जा रहा है
मारे न जायें अपने आदमी
सो पूछ-पूछ कर
जवाब से मुतमइन होकर
मार रहे हैं हम...
बस समस्या भाषा की है
उन्हें समझ में नही आती
हमारी भाषा
हमें समझ में नही आती
उनकी बोली
हेल्लो हेल्लो
क्या करें हुज़ूर..
एक तरफ आपका फरमान
दूजे टारगेट की बेचैनियाँ
इसके चलते 'मिस्टेक' हो सकती है...
अपने लोगों को तो ज़ुरूर पता होना चाहिए
पैगम्बर की माँ का नाम
और रटी होनी चाहिए कुरआन की आयतें
काश, दुनिया को ओने-कोने में बसे
हमारे आदमी सभी
अरबी बोल पाते...अरबी समझ पाते...
(मौलिक अप्रकाशित )
Comment
आपकी कविताओं का अंदाज़ अलहदा है, आदरणीय अनवर साहब.. और मैं आपके इस अंदाज़ का फ़ैन हूँ.
भाषण कविता नहीं होता, तो चीख भी कविता नहीं होती. आपने कई-कई बार इस तथ्य को सार्थकता से प्रस्तुत किया है.
जिस संवेदना और वैचारिक स्पष्टता की आवश्यकता प्रस्तुत कविता को थी आपने आत्मीयता और दायित्व के साथ इनसे कविता को संतुष्ट किया है. ऐसी शाब्दिक और वैचारिक ताकत ही रचनाकर्म में यथार्थ प्रस्तुतियों की संवाहक है. जो है सो है को शिद्दत से आपने उभारा है.
बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें आदरणीय.
आदरणीय , बहु अच्छा विषय चुना , बहुत अच्छी बात लिखी है !! बहुत बहुत बधाई !!
बहुत बढि़या प्रस्तुति है, सादर
बहुत संवेदनशील मुद्दे पर आपकी कलम चली ये समस्या हम सभी की है अतः हल भी मिलकर ही सोचना चाहिए दहशत गर्दों का कोई धर्म ही नहीं होता
अति सुन्दर रचना .. बधाई आप को
विषय अच्छा लगा ... रचना अद्वितीय है ..! खूब ..बहुत खूब :)
गजब प्रस्तुति-
आभार आदरणीय-
बम गोली भी मारते, पूंछ पूंछ कर नाम |
रहिये सभी सचेत अब, हिन्दु-सिक्ख-इस्लाम |
हिन्दु-सिक्ख-इस्लाम , धर्म की पढ़ो किताबें |
पढ़ लो श्लोक कलाम, अन्यथा गर्दन दाबे |
बड़ा मार्मिक लेख, पोल अनवर ने खोली |
पढ़कर चेहरा-धर्म, फटे अब से बम गोली ||
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