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हँसते रहे रोते रहे |

गूंजती थी जब खमोशी, हादसे होते रहे |

रात जागी थी जहां पर दिन वहीँ सोते रहे ||

 

अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर

अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||

 

कौंध कर बिजली गिरी वसुधा दिवाकर भी डरा,

कुंध तनमन क्रोध संकर बीज हम बोते रहे ||

 

भावना विचलित हुई जब चीर नैनो से हटा,

चार अश्रु गिर धरा पर माटी में खोते रहे ||

 

पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,

हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे ||

 

गुम गए फिर शब्द सारे बह गए नद नीर में,

तब जनाजे का उठा छः गज कफ़न ढोते रहे ||

 

अब नजर आती नहीं है, घुप अँधेरे में किरण,

बैठकर तनहा हमी, हँसते रहे रोते रहे ||

 

 

मौलिक/अप्रकाशित.

 

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on November 26, 2013 at 1:37pm

आदरणीय जीतेन्द्र 'गीत'  जी, आदरणीया गीतिका 'वेदिका' जी आदरणीय वजय मिश्र साहब आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी आप सभी का अतिशय आभार.

आदरणीया गीतिका जी, मेरी यही कमजोरी है मैं सब सीधे सीधे ही लिखता हूँ और यही  आपके द्वारा इंगित मिसरे में भी है- कभी कभी बच्चों का क्रोध भी माता पिता को हैरत में डाल देता है.सादर.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 26, 2013 at 10:51am

आ० अशोक रक्ताले जी 

मर्मस्पर्शी ग़ज़ल 

सभी शेर अन्तः तक पहुँचने की काबिलियत रखते हैं... 

पर इस शेर नें बहुत गहरे छुआ 

अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर

अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||

बहुत सुन्दर प्रस्तुति 

हार्दिक शुभकामनाएँ 

Comment by विजय मिश्र on November 22, 2013 at 4:58pm
थोड़ा नैराश्य लिए मगर सुंदर भावों का समायोजन , मन को छूने वाले कुछ शे'र भी गहराई लिए हुए है |बधाई रक्तालेजी
Comment by वेदिका on November 21, 2013 at 11:52pm

अनमने से भाव थे वह अनमनी सी थी नजर

अनमने सिंगार पर ही मुग्ध हम होते रहे ||,,,,,लाजवाब शेअर रहा! 

कौंध कर बिजली गिरी वसुधा दिवाकर भी डरा,

कुंध तनमन क्रोध संकर बीज हम बोते रहे ||,,,,मे पहला मिसरा मेरी समझ के बाहर रहा! 

खूबसूरत गज़ल पर बधाई लीजिये!

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 21, 2013 at 11:32pm

पीर बढती ही गई जब भावना के वेग से,

हम किनारे पर रहे हर शब्द को धोते रहे......यह शेर बहुत पसंद आया

आदरणीय अशोक जी , बेहतरीन गजल पर दिली दाद कुबूल करें

 

Comment by Ashok Kumar Raktale on November 21, 2013 at 10:23pm

आदरणीय निलेश जी, आदरणीय अरुण जी आदरणीय संदीप भाई आदरणीय गिरिराज भंडारी साहब आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी आप सभी का बहुत बहुत आभार!

आदरणीय निलेश जी सादर आपको लय भंग लग रही है तो होगी. यह सम्भव है.आभार आपने इतना गौर किया. पुनः आभार.

Comment by रमेश कुमार चौहान on November 21, 2013 at 8:25pm

आदरणीय जालवाब गजल पेश करने के लिये दाद कबूल करे ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 21, 2013 at 5:31pm

आदरणीय अशोक भाई , बहुत कामयाब ,  बहुत लाजवाब गज़ल कही है आपने , ढेरों बधाई !!!

अब नजर आती नहीं है, घुप अँधेरे में किरण,

बैठकर तनहा हमी, हँसते रहे रोते रहे || --------- लाजवाब शे र !!!

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 21, 2013 at 3:29pm

क्या बात है सर जी बहुत दिनों के बाद आपकी कोई रचना पढ़ रहा हूँ

और बस मजा ही आ गया

इस शानदार ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई हो

सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 21, 2013 at 3:24pm

आदरणीय रक्त्ताले जी बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल कही है सभी शेर अच्छे बन पड़े हैं दिली दाद कुबूल फरमाएं.

कृपया ध्यान दे...

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