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कुण्डलिया : मैं-तुम-हम // --सौरभ

'मैं-तुम’ के शुभ योग से, 'हम’ का आविर्भाव
यही व्यष्टि विस्तार है, यही व्यष्टि अनुभाव
यही व्यष्टि अनुभाव, ’अपर-पर’ का संचेतक    
’अस्मि ब्रह्म’ उद्घोष, ’अहं’ का धुर उत्प्रेरक
’ध्यान-धारणा’  योग, सतत संतुष्ट रखे ’मैं’
’प्रेय’  क्षुद्र   व्यामोह, ’श्रेय’ निर्वाह  करे ’मैं’

’तुम’ ऊर्जा, ’तुम’ प्राणवत, ’तुम’ ’मैं’ का विस्तार
गहन  भाव  संतृप्त  यह,  मानवता  का सार
मानवता  का  सार, सदा जग ’तुम’ से सधता
’मैं’ कारक का सूच्य, जगत तो ’तुम’ से चलता
बहु-धारक  का  भाव, जिये  ज्यों  खगधारी द्रुम
संज्ञाएँ   प्रच्छन्न,   धारता   हर संभव  ’तुम’

’हम’  अद्भुत  अवधारणा, ’हम’  अद्भुत  संज्ञान
यह  समष्टि  के मूल का  अति उन्नत विज्ञान
अति उन्नत विज्ञान, व्यक्तिवाचक का व्यापन
उच्च  भाव  संपिण्ड, ’अहं’  का  भाव  समापन
उच्च  मनस  का  हेतु, ’भाव-कर्ता’  पर  संयम
स्वार्थ तिरोहित सान्द्र, तभी हो ’मैं-तुम’ का ’हम’

*******


--सौरभ

(मौलिक और अप्रकशित)

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Comment

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Comment by Satyanarayan Singh on January 8, 2014 at 1:00pm

परम आ. सौरभ जी सादर,
परिष्कृत भाषा शैली एवं दार्शनिक दृष्टिकोण के आधार पर सुंदरता से परिभाषित हुए हैं तीनों शब्द. आदरणीय हार्दिक बधाई

Comment by Arun Sri on January 8, 2014 at 12:27pm

"मैं, तुम, हम" के माध्यम से आध्यात्मिकता की व्यावहारिक यात्रा करवा दी आपने ! मानो हरेक पंक्ति किसी महाकाव्य का सार हो ! प्रसंशा में कुछ भी कह् पाना बहुत मुश्किल !

Comment by vijay nikore on January 8, 2014 at 11:42am

आदरणीय सौरभ जी,

 

महावाक्यों के भाव को प्रेषित करती इस रचना के लिए करतल ध्वनि।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

 

Comment by AVINASH S BAGDE on January 7, 2014 at 10:27pm

मानवता  का  सार, सदा जग ’तुम’ से सधता
’मैं’ कारक का सूच्य, जगत तो ’तुम’ से चलता.....आदरणीय सौरभ जी ये सारी  कुंडलियां ही >>>मानवता  का  सार..

'मैं-तुम’ के शुभ योग से, 'हम’ का आविर्भाव...उम्दा भाव ..श्रेष्ठ कुण्डलियाँ /लेखन को साधुवाद 

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 7, 2014 at 10:04pm

आदरणीय सौरभ भाई , उच्च स्तरीय आध्यात्मिक  कुण्डलिया की हार्दिक बधाई॥

मैं को तुम से जोड़िये,  रहा न मैं का भाव ॥ 

पल भर में ही हो गया, हम का आविर्भाव॥॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on January 7, 2014 at 9:47pm

आदरणीय सौरभ सर आपने बहुत बेहतरीन कुण्डलिया रची है बहुत बहुत बधाई आपको इन कामयाब रचनाओं के लिये

Comment by coontee mukerji on January 7, 2014 at 8:28pm

सौरभ जी आपकी सुंदर रचना हमेशा हमारा मार्गदर्शन करती है....यथा..

हम’  अद्भुत  अवधारणा, ’हम’  अद्भुत  संज्ञान
यह  समष्टि  के मूल का  अति उन्नत विज्ञान
अति उन्नत विज्ञान, व्यक्तिवाचक का व्यापन
उच्च  भाव  संपिण्ड, ’अहं’  का  भाव  समापन
उच्च  मनस  का  हेतु, ’भाव-कर्ता’  पर  संयम
स्वार्थ तिरोहित सान्द्र, तभी हो ’मैं-तुम’ का ’हम.......

सादर

कुंती.

Comment by MAHIMA SHREE on January 7, 2014 at 7:22pm

आदरणीय सौरभ सर . हार्दिक .आभार ..इतनी उच्च कोटि की कुंडलियाँ और कथ्य , शब्द संयोजन  सब जैसे सम्मोहित कर ता हुआ .. मंत्रमुग्ध  प्रस्तुती .कुछ भी कहना जैसे सूरज को दिया दिखाना ...हार्दिक बधाईयाँ ..सादर

Comment by Shyam Narain Verma on January 7, 2014 at 3:35pm
इस प्रस्तुति हेतु बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ........

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 7, 2014 at 2:22pm

आदरणीय सौरभ भाई  , आध्यात्म दर्शन पर आपकी तीनो  कुन्डलियाँ लाजवाब हैं , मेरे विचार से , मै का तुम होने मे ही कठिनाई बहुत है , तुम से  हम की दूरी फिर सरल हो जाती है  ॥ वाह भाई जे बहुत कठिन विषय को आपने सरलता से छ्न्द बद्ध किया है , आपको  बहुत बहुत बधाइयाँ ॥

मै को तुम कर लीजिये , राह सरल  हो जाय

यही भाव जब सान्ध्र हो, हम खुद ही हो जाय 

 

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