तुम पथिक, आए कहाँ से,
कौनसी मंज़िल पहुँचना?
इस शहर के रास्तों पर,
कुछ सँभलकर पाँव धरना।
बात कल की है, यहाँ पर,
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं,
और जड़ जीवन हुआ था।
देख थी हैरान कुदरत,
सूर्य का बेवक्त ढलना।
जो युगों से थे खड़े
वे पेड़ धरती पर पड़े थे।
उस कुटिल तूफान से, तुम
पूछना कैसे लड़े थे।
याद होगा हर दिशा को,
डालियों का वो सिसकना।
घर बसे हैं अब जहाँ,
लाखों वहीं बेघर हुए थे।
बेरहम भूकम्प से सब,
बेवतन वनचर हुए थे।
खिलखिलाहट आज है, कल
था यहीं आहों का झरना।
हो सके, उनको चढ़ाना,
कुछ सुमन संकल्प करके।
कुछ वचन देकर निभाना,
पूर्ण काया-कल्प करके।
याद में उनकी पथिक! तुम
एक वन की नींव रखना।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया कल्पना जी
बहुत सुन्दर गीत हुआ है.. एक हरे भरे शहर का डीफोरेस्टेशन, और उसकी जगह कंकरीट की मशीनी जड़ता का उग आना बहुत संवेदन शीलता से अभिव्यक्त हुआ है...
बात कल की है, यहाँ पर,
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं,
और जड़ जीवन हुआ था।................किस तरह इंडसट्रीयलाइज़ेशन वनों को साज़िश के तहत निगल जाता है..उसकी सार्थक प्रस्तुति
लेकिन आगे के बंद में...
घर बसे हैं अब जहाँ,
लाखों वहीं बेघर हुए थे।
बेरहम भूकम्प से सब,
बेवतन वनचर हुए थे।...................यहाँ स्पष्टतः भूकंप को कारण बताया है fauna(एनिमल्स) के habitat छिन जाने का
तथ्य के तौर पर यहाँ थोड़ी सी तार्किकता होनी चाहिए.... और यदि भूकंप को एक बिम्ब की तरह लिया है तो यह बिम्बात्मकता यहाँ स्पष्ट न होकर विरोधाभास उत्पन्न कर रही है, कि वनों की तबाही का कारण प्राकृतिक आपदा रहा या औद्योगीकरण. (शायद मैं स्पष्ट कर पायी)
प्रति पद अंतिम पंक्तियों में यूं तो समतुकांतता का निर्वहन हो रहा है लेकिन फिर भी इनपर संतुष्ट मैं भी नहीं हो पा रही हूँ... आ० सौरभ जी के कहे से पूर्णतः सहमत हूँ.
ढलना धरना सिसकना झरना रखना...........इस तुकांतता में कर्णप्रियता कुछ तो कम ज़रूर है.
एक बात: मैंने अपने सीखने के क्रम में ये ज़रूर जानी कि शिल्प से सम्बंधित कुछ सूक्ष्म बातें हम कई बार इंगित हो जाने के बाद भी नहीं समझ पाते या स्वीकार कर पाते... लेकिन समय के साथ धीरे धीरे जब वो हमें समझ आती हैं तो हमारी स्वीकार्यता उनके लिए अपनेआप ही बनने लगती है.
सादर शुभकामनाएं.
बात कल की है, यहाँ पर,
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं,
और जड़ जीवन हुआ था।
देख थी हैरान कुदरत,
सूर्य का बेवक्त ढलना।......................बहुत सुंदर, आदरणीया बधाई स्वीकारें
.................
अतिसुन्दर कल्पना !
इस उत्कृष्ट प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई ।
आदरणीय गिरिराज जी, प्रशंसात्मक शब्दों के लिए सादर धन्यवाद
आदरणीय, मुझे भी इस एक ही स्थान पर खटका था जहाँ कोई शब्द नहीं सूझ रहा था तो मैंने यही सोचा कि लय और मात्राएँ बराबर हैं तो ठीक ही होगा। लेकिन मन में उथल पुथल तो मच ही गई थी,कंप्यूटर बंद करने के बाद समाधान सूझ गया फिर आकर संशोधन किया, आपको मैसेज भी दिया, अपनी टिप्पणी हटाना ठीक नहीं समझा, क्योंकि इससे अन्य सीखने वालों को लाभ ही होगा। यह सब आपकी टिप्पणी से ही संभव हो पाया वरना एक महीने से तैयारी में लगे इस गीत को पूर्ण ही नहीं कर पा रही थी। आपका बहुत बहुत धन्यवाद । सादर
//मुझे तो इसकी लय और मात्रिक शिल्प में कोई गलती नज़र नहीं आती। //
जय हो.. अब मैं क्या कहूँ ! आपने प्रस्तुत रचना में संशोधन भी कर लिया. और इस आसानी से पूछ भी रही हैं कि कोई गलती नज़र नहीं आ रही है तो मैं क्या कोई कुछ नहीं कह सकता.. :-)))
चलिये, रचना की तुक सुधर गयी है, अब इस पर भी बधाई.
आपकी इस रचना के कारण ही यह पोस्ट संभव हो पाया.
http://www.openbooksonline.com/group/chhand/forum/topics/5170231:To...
आप कमसेकम यह तो स्वीकार कर लेतीं कि आपने इस प्रस्तुति के आखिरी बन्द की आधार पंक्ति या ऐसी ही तुकों में आवश्यक सुधार कर लिया है. वर्ना ऐसा कुछ कहना तो सीधा-सीधा किसी की टिप्पणी और सलाह को नकारना हो गया आदरणीया.
चलिये, किस्सा खत्म हुआ.
//नवगीत मात्रिक छंद ही होते हैं। वर्ण वृत्त में रखने से भाव भी तो बदल जाते हैं ना। //
ये क्या कह रही हैं आप, आदरणीया ? ऐसा कहना अनावश्यक विवाद ही पैदा करेगा. हम शिल्पों पर ऐसी बातें न करें जिसका कोई तार्किक अर्थ नहीं निकलता.
//मैं तो अपनी पूरी क्षमता से ही लिखती हूँ ..//
आपकी क्षमता का ही सम्मान है आदरणीया कल्पनाजी, कि आपकी रचना को पढ़ने के बाद मैं अपनी थोड़ी-बहुत जानकारी के अनुसार देर रात गये तुकन्तता पर वो पोस्ट लगाया हूँ जिसका लिंक ऊपर दिया गया है. यानि अभी वह पोस्ट एकदम ताजा है.. :-)))
//लेकिन आपको संतुष्टि नहीं होती तो लगता है शायद अभी मुझे लिखना नहीं आता। //
क्या ऐसा नहीं हो सकता, आदरणीया.. कि हम सभी को अभी पढ़ना नहीं आता .. हा हा हा हा... . :-))))
हम सब यहाँ अपनी-अपनी विद्वता नहीं झाड़ रहे हैं आदरणीया. हमसब समवेत सीख रहे हैं.
और हम-आप इसे पूरी गहराई से जितनी जल्दी समझ लें, उतना अच्छा !
सादर धन्यवाद
आदरणीया कल्पना जी , बहुत सुन्दर नवगीत की रचना की है आपने , आपको हार्दिक बधाई ।
बात कल की है, यहाँ पर,
कत्ल जीवित वन हुआ था।
जड़ मशीनें जी उठी थीं,
और जड़ जीवन हुआ था।
देख थी हैरान कुदरत,
सूर्य का बेवक्त ढलना। ---- बहुत खूब सूरत बन्द !! आपको बधाई ॥
आदरणीय सौरभ जी, इस रचना पर मैंने अत्यधिक श्रम किया है। मुझे तो इसकी लय और मात्रिक शिल्प में कोई गलती नज़र नहीं आती। नवगीत मात्रिक छंद ही होते हैं। वर्ण वृत्त में रखने से भाव भी तो बदल जाते हैं ना। मैं तो अपनी पूरी क्षमता से ही लिखती हूँ लेकिन आपको संतुष्टि नहीं होती तो लगता है शायद अभी मुझे लिखना नहीं आता। आपके कथन पर और विचार करूंगी, संभव हुआ तो संशोधन भी कर दूँगी। पसंद करने के लिए हार्दिक आभार। सादर
आदरणीय शिज्जु जी, नीरज जी, आदरणीया कुंती जी, अन्नपूर्णा जी, वंदना जी, आप सबका रचना को सराहने के लिए हार्दिक आभार।
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