बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
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झील के पानी में गिर के चाँद मैला हो गया।
स्वाद मीठी नींद का कड़वा-कसैला हो गया॥
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दो घड़ी भी चैन से मैं साँस ले पाता नहीं,
यूँ तुम्हारी याद का मौसम विषैला हो गया।
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सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,
आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।
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आँख में मोती नहीं बस वासना की धूल है,
प्यार देखो किस क़दर मैला-कुचैला हो गया।
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हर किसी को सादगी के नाम से नफ़रत हुई,
कल जिसे कहते थे मजनूँ,आज लैला हो गया।
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खेत-खलिहानों की लज़्ज़त कंकरीटों में कहाँ,
हर नई पीढ़ी का बचपन बंद थैला हो गया॥
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-मौलिक एवं अप्रकाशित।
-21.01.2014
Comment
सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,
आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।..
खेत-खलिहानों की लज़्ज़त कंकरीटों में कहाँ,
हर नई पीढ़ी का बचपन बंद थैला हो गया.... वाह ... बहुत खूब हार्दिक बधाई आपको रवि प्रकाश जी .
बहुत सुन्दर रवि जी बेहतरीन गजल के लिये बधाई ...
आदरणीय भाई रवि प्रकाश जी एक बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बहुत-बहुत बधाई .
सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,
आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।
मानव के बदलते आचरण पर खूब चोट की है .
सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,
आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।
बहुत खूब आदरणीय रवि जी बहुत अच्छी ग़ज़ल
एक छोटा सा सुझाव है
खेत-खलिहानों की लज़्ज़त कंकरीटों में कहाँ,
पीढ़ियों का बचपना इक बंद थैला हो गया॥......में बचपना शब्द पर ध्यान दिया जाए तो इसके दो अर्थ हैं एक तो बचपन जिसे बच्चों से जोड़ा जाये तो सही है आपने भी उसी अर्थ में लिया है लेकिन यही शब्द बड़ों के साथ जोड़ें तो बुद्धि की अपरिपक्वता का द्योतक (सूचक ) हो जाता है पीढ़ियों से जुड़कर कहीं दूसरा अर्थ तो संलग्न नहीं हो जाएगा | एक नज़र देखने से मुझे ऐसा लगा |
कृपया अन्यथा मत लीजियेगा ग़ज़ल में आपकी मेहनत और हिंदी का यह स्वरूप अति प्रशंसनीय है
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