गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।
नहीं बुलाते चुग्गा लेकर,
अब उनको मुंडेर, अटारी।
हर आँगन के हरे पेड़ पर,
पतझड़ बैठा डेरा डाल।
भीत हो रहा तुलसी चौरा,
देख सन्निकट अपना काल।
बदल रहा है अब तो हर घर,
वृद्धाश्रम में बारी-बारी।
बतियाते दिन मूक खड़े हैं।
फीकी हुई सुरमई शाम।
घूम-घूम कर ऋतु बसंत की,
हो निराश जाती निज धाम।
गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी।
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
गाँवों के पंछी उदास हैं
देख-देख सन्नाटा भारी।
गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी। ---- वाह ! बहुत सुन्दर और लाजवाब गीत रचना हुई है | बहुत बहुत बधाई आद कल्पना रामानी जी
जब से नई हवा ने अपना,
रुख मोड़ा शहरों की ओर।
बंद किवाड़ों से टकराकर,
वापस जाती है हर भोर।..........वाह! सुन्दर गीत!
आदरणीया कल्पना रामानी जी सादर, सुन्दर गीत रचा है, बहुत-बहुत बधाई. मुझको इसमें आल्हा का भी आनंद आया है. सादर.
आपकी अति सुंदर,सादगी भरी रचना मन को मोह लेती है आदरणीया कल्पना जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें
गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी।
आदरणीया रमानी जी
सादर
सच ही तों है
बधाई सुन्दर प्रस्तुति हेतु
बहुत सुन्दर लाजबाब नव गीत लिखा आ० कल्पना जी ,
गाँवों के सुख राख़ कर गई,
शहरों की जगमग चिंगारी। ये दो पंक्तियाँ ही पूरी रचना का सार हैं ,बहुत सुन्दर ...हार्दिक बधाई आपको
वाह्ह्ह्हह्ह्ह्हह्ह अति सुन्दर भाव प्रस्तुती
हमेशा की तरह एक और सुंदर रचना. हार्दिक बधाई.
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