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ज़िन्दगी की ढिबरी ... (विजय निकोर)

ज़िन्दगी की ढिबरी

डूबती संध्याओं की उदास झुकी पलकों में

एक रिश्ते-विशेष के साँवलेपन की झलक

बरतन पर लगी नई कलाई की तरह

हर सुबह, हर शाम और रात पर चढ़ रही, मानो

गम्भीर उदास सियाह अन्तर्गुहाओं में व्याकुल

मूक अन्तरात्मा दुर्दांत मानव-प्रसंगों को तोल रही

रिश्ते के साँवलेपन में समाया वह दानवी दर्द

अतीत की आँखों से टपक-टपक कर अब

क्यूँ है मेरी रुँधी हुई आवाज़ में छलक रहा

बहा होगा आज फिर से ज़रूर घड़े के बाहर

हृदय में सोई व्यथित वेदना का अन्तर्प्रवाह

सोचते घबरा जाता है भयभीत अंत:स्वर मेरा

अतीत के क्रूरतम कटुतम आत्मीय अनुभव

साक्षी वह मेरी जीवनावस्था के प्रमाण अनुक्षण

उनको भुला देना, मिटा देना, है समयानुकूल, पर

स्नेह के कठिन निषक्रम मार्गों को अनुभूत करती

निज से लड़ रही लहर एक दर्द की दोड़ जाती है

छा जाती है सांझ संकल्पों पर, लिए उदासी का रंग

हमारे बचपन के स्नेह के रहस्य को छिपाय

किराये के उन सुकुमार स्वपनों की आत्मा,

द्रुतगामी समय पर फैलता घुँघराला कुहरा ...

ज़िन्दगी की ढिबरी में अब तेल कम बचा है

उखड़ी ज़िन्दगी के उदयास्त से उद्विग्न

मेरे कन्धे पर यूँ सिर टेक कर प्रिय

संतप्त, तुम कब तक रोओगी ?

                ---------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on June 23, 2014 at 7:22pm
रौशनी में मष्तिष्क खूब विचरण करता है . संध्या होते होते जब दिन ढलने लगता है तो मन भी वापस लौटने लगता है और ( दिन भर की ) स्मृतियों को संजोने और उलटने-पलटने लगता है . बहुत खूब आदरणीय विजय निकोर जी , बहुत ही अच्छा संजोया है आपने. दृष्टिकोण है , पुराने कष्ट के दिनों की भी स्मृतियाँ मधुर होती हैं .
रचना के लिए बहुत बहुत बधाई .
सादर.
Comment by Sushil Sarna on June 23, 2014 at 12:36pm

हमारे बचपन के स्नेह के रहस्य को छिपाय
किराये के उन सुकुमार स्वपनों की आत्मा,
द्रुतगामी समय पर फैलता घुँघराला कुहरा ...
ज़िन्दगी की ढिबरी में अब तेल कम बचा है
उखड़ी ज़िन्दगी के उदयास्त से उद्विग्न
मेरे कन्धे पर यूँ सिर टेक कर प्रिय
संतप्त, तुम कब तक रोओगी ?

………उफ्फ़ ! ज़िंदगी के दहकते पृष्ठों को अपने साँसों के आखिरी लम्हों में बड़ी ही ख़ूबसूरती और मार्मिकता से दर्शाया है … आपकी इस कलमगिरी को और आपके अहसासों को सादर नमन आदरणीय विजय निकोर जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 23, 2014 at 11:58am

आदरनीय  निकोर जी

अद्भुत, अजगुत, अद्वितीय , अनुपम , अनिवर्चनीय  i आपका प्रेम  पूजा का उपादान है  i  सच पूछिए तो  मेरी श्रद्धा आपके प्रेम की अनुगामिनी है i  घनानंद के बाद ऐसी पीर मै आप में ही देख पाया i वह ह्रदय पूजनीय है जिसमे ऐसा दर्दीला प्रेम पलता है i जहा तक  ढिबरी की बात है  मेरे  एक गीत की पंक्तियाँ आपको समर्पित है -   सुन ली गुन  ली कुछ पल तुमने

                                                                                           इस   गूंगे   चातक    की   भाषा  i

                                                                                           जीवन   संध्या   में   सपनो   के

                                                                                           सोंन  महल की  क्या अभिलाषा ?

                                                                              मुझको बादल -बादल करके मत पानी-पानी हो जाना i

                                                                              मै जी लूँगा  साथी मेरे पर  तुम मुझको याद न आना i   ---- सादर i

                                                                                             

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 23, 2014 at 11:42am

हमारे बचपन के स्नेह के रहस्य को छिपाय

किराये के उन सुकुमार स्वपनों की आत्मा,

द्रुतगामी समय पर फैलता घुँघराला कुहरा ...

ज़िन्दगी की ढिबरी में अब तेल कम बचा है

उखड़ी ज़िन्दगी के उदयास्त से उद्विग्न

मेरे कन्धे पर यूँ सिर टेक कर प्रिय

संतप्त, तुम कब तक रोओगी ?----------वाह ! आत्मा का वास जैसे किराए पर कमरा ले करे निवास | आत्मा के जाने पर प्रियजनों 

का विरह में रूदन आखिर कब तलक ? बहुत सुन्दर भाव उढेले है आपने रचना में | बहुत बहुत बधाई आद विजय निकोर्रे जी 

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