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ग़ज़ल -निलेश "नूर" - कभी वो मेहमां रही है मेरी

आ. तिलक राज कपूर सर के मार्गदर्शन से एक ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है ..  उम्मीद है आप का स्नेह प्राप्त होगा
.
12122/ 12122/ 12122/ 12122 

हया के मारे वो वस्ल के पल, नज़र का पर्दा गिरा रही है,
मगर ये गालों की सुर्ख़ रंगत, हर एक ख्वाहिश बता रही है.  
.

कभी ज़मीं वो कुरेदती है, घुमाए जाती है अपना कंगन,  
छुपा रही है मिलन की चाहत, तभी तो नज़रें चुरा रही है.
.

ज़रा हदों से निकल के आगे मरोड़ दी जब कलाई उसकी, 
लगे कि जैसे वो कसमसाकर क़रीब अपने बुला रही है.
.

ये हसरतों के भड़कते शोले, लगे कि दुनिया मचल उठी हो,
उखडती साँसों की धौंकनी अब, लवें दीयों की बुझा रही है.
.

ये मोगरे के महकते गजरे, महक रहा है कभी पसीना, 
लगी महकने हयात सारी, महक-महक में समा रही है.
.

कभी वो मेहमां रही है मेरी, कभी वो करती है मेज़बानी,
कभी लगे है वो ओढ़नी सी, कभी वो खुद को बिछा रही है.
.

घटाएँ बरसी किनारे टूटे, चुनी हैं राहें नदी ने अपनी,
नदी समंदर से मिल रही है, वो अपनी हस्ती मिटा रही है.

.
निलेश "नूर"  
मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 4, 2014 at 10:05pm

धन्यवाद श्री लक्ष्मण धामी जी 

टंकण त्रुटी सुधार ली है .... 
पुन: धन्यवाद 

Comment by Santlal Karun on July 4, 2014 at 5:00pm

निलेश जी, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल की ख़ूबसूरती यह भी है कि इसका कोई भी शेर हल्का नहीं है | ...हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 4, 2014 at 11:55am

आ० भाई नीलेश जी इस स्वयं मुखरित ग़ज़ल के लिए ढेरों बधाई l इसमें से किसी एक या दो शेर उद्धृत करने का अर्थ इस उम्दा ग़ज़ल का अपमान ही होगा l हाँ एक निवेदन है अंतिम शेर में टंकण की भूल दो बार से लिखा गया है उसे दुरस्त कर लें  समंदर से से मिल             

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 3, 2014 at 8:42pm

बहुत बहुत आभार आ. तिलक राज कपूर सर। 
हौसला अफ़ज़ाई के लिए भी और मार्गदर्शन के लिए भी. 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 3, 2014 at 8:40pm

शुक्रिया मोहतरम नादिर खान साहब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 3, 2014 at 8:40pm

धन्यवाद आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी 

Comment by Tilak Raj Kapoor on July 3, 2014 at 8:16pm

बहुत ही खूबसूरत मुसल्‍सल ग़ज़ल है। बड़ी खूबसूरती से घड़ी हुई। हार्दिक बधाई। रहा प्रश्‍न मेरे मार्गदर्शन का तो आपने मार्गदर्शन देने लायक कुछ छोड़ा ही नहीं था। 

Comment by नादिर ख़ान on July 3, 2014 at 7:56pm

कभी वो मेहमां रही है मेरी, कभी वो करती है मेज़बानी,
कभी लगे है वो ओढ़नी सी, कभी वो खुद को बिछा रही है.
.
घटाएँ बरसी किनारे टूटे, चुनी हैं राहें नदी ने अपनी,
नदी समंदर से से मिल रही है, वो अपनी हस्ती मिटा रही है

आदरणीय नीलेश जी बहुत खूबसूरत गज़ल कही आपने,ढेरों मुबारकबाद उम्दा प्रस्तुति के लिए ..

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 3, 2014 at 7:31pm

नूर जी

बहुत सुन्दर i एक से बढ़कर एक शेर -ज़रा हदों से निकल के आगे मरोड़ दी जब कलाई उसकी, 
लगे कि जैसे वो कसमसाहट क़रीब अपने बुला रही है.

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