2122 2122 212
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मयकदे को अब शिवाले बिक गये
रहजनों के हाथ ताले बिक गये
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घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब
रात के हाथों उजाले बिक गये
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जो खबर थी अनछपी ही रह गयी
चुटकले बनकर मशाले बिक गये
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न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया
जांच के जब यार आले बिक गये
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दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही
दोस्ती के फिर से पाले बिक गये
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सोचते थे नींव जिनको गाँव की
वो शहर में बनके माले बिक गये
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
सोचते थे नींव जिनको गाँव की
वो शहर में बनके माले बिक गये.. .
इस ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए बधाई.
nice gazal badhai
दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही
दोस्ती के फिर से पाले बिक गये........वाह! कमाल , आदरणीय दिली बधाई आपको
आदरणीय लक्ष्मण जी ..शानदार ग़ज़ल गुनगुनाये में खूब आनंद आया ..मेरी तरफ से हार्दिक बधाई सादर
धामी जी
बेहतरीन i
घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब
रात के हाथों उजाले बिक गये
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