तुम हुए मंच-दाँ जब से मन निहाई हो गया
यों मगर खाली निहाई पीटने से क्या हुआ |
सोन-माटी के कबाड़े क्यों नजर आते नहीं
सिर्फ़ बातों की हथौड़ी से धरा सब रह गया |
तुम हुए रहनुमा मकसद घर से बाहर चल पड़े
पर तुम्हारी रहबरी ने क्या-क्या जिल्लत ना दिया |
लूटने का हुनर दौलत की हवस बढ़ती गई
आबरू पे भी निगाहें जीना मुश्किल कर दिया |
तुम सियासत के सदन से निकलकर बागी हुए
दर्द का मारा लगा हम सब के ख़ातिर आ गया |
तेंदुए की चाल लेकिन तुम छिपा पाए नहीं
देखकर बस्ती का हर घर खौफ़ से सहम गया |
खूँ-पसीने की कमाई उजले कालिख में फँसी
हर फसल अच्छी रही पर हाथ कुछ भी ना मिला |
मंच से बोली लगाया बनके तुमने खेतिहर
चौधरी फिर खुद ही बन खलिहान सारा ले लिया |
(मौलिक व अप्रकाशित)
-- संतलाल करुण
Comment
रचना के चारों ही भाव असहाय, गरीब और शरीफ इन्सान पर पर उन चौधरियों द्वारा हथोडा चलाने और लूटने वालों पर गहरा
व्यंग करते है | - यहाँ दिनकर जी की रचना के उलट आजकल यही देखने में आता है -
क्षमा न करते वे भुजंग जिनके पास गरल है
मरते रहते वे सदा जो दीन हीन और सरल है |
आदरणीय स६त लाल जी , खूब सूरत रचना , आज के समय पर चोट करती हुई , बधाइयाँ प्रेषित हैं |
आदरणीय श्री संतलाल जी, सादर अभिवादन!
हर पंक्ति लाजवाब! पर मेरे हिशाब से चिह्नित करने योग्य -
सोन-माटी के कबाड़े क्यों नजर आते नहीं
सिर्फ़ बातों की हथौड़ी से धरा सब रह गया | सादर!
Pranam sir ji ......... Sundar prastuti ke liye saadar badhai
आ० भाई संतलाल जी , मुखौटे पहने लोगों पर अच्छी चोट की है . हार्दिक बधाई स्वीकारें .
मंच से बोली लगाया बनके तुमने खेतिहर
चौधरी फिर खुद ही बन खलिहान सारा ले लिया |................ बहुत सुंदर ... बधाई आप को श्रीमान!
bahut sundar ..saadar badhai
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