हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा
चारों तरफ.. .
उजाले काटते हैं / छलते है !
लगता है अब डर
उजालें से
दिखती हैं जब
अपनी ही परछाई -
छोटी से बड़ी
बड़ी से विशालकाय होती हुई.
भयभीत हो जाती हूँ !
मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,
ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !
जब होगा अँधेरा चारों ओर
नहीं दिखेगा
आदमी को आदमी !
यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.
फिर तो मन की आँखें
स्वतः खुल जाएँगी !
देख सकेंगे फिर सभी...
/ और मैं भी /
दिल की सच्चाई !
............
सविता मिश्रा
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सौरभ भैया सादर नमस्ते ........यह हमारी लेखनी की खुशनसीबी जिसे पढ़ आपको अपनी रचना याद आ गयी, बस fb पर एक ग्रुप अँधेरे पर कुछ लिखना था, यह लिख गयी वहां समय समाप्त हो चूका था, तो यहाँ पोस्ट कर दी अपना ही टेस्ट लेने के लिय |
हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा..
चारों तरफ ...जाहिर है भैया आपकी ही अधिक संप्रेषणीय है, ..हम काव्य और शिल्प में शून्य है मानते है ...कोशिश कर रहें हैं अब ....कहते हैं ना जब जागो तभी सबेरा
आपकी उपस्थिति से हार्दिक प्रसन्नता हुई हमें यूँ ही मार्गदर्शन करते रहें हो सकता है हममें सुधार हो ही जाए |
ऐसा नहीं, अँधेरे में भागता हर अभागा
पलायनवादी ही हो,
चकचकाती इस उजली धूप से बच पाने की
इच्छा भी हो सकती है. .............खुबसुरत अंश को सांझा करने के लिय आभारी है हम आपके
विजय भैया सादर नमस्ते ........प्रयास तो कर रहें हैं भैया ..पुनः शुक्रिया दिल से भैया आपका
बहुत सुंदर और चिंतन परक भाव रचना के लिए हार्दिक बधाई | बाकी आदरणीया सौरभ जी ने रचना पर विस्तार से
अपनी एक रचना के साथ भाव साझा किये है जो बहुत सार्थक है | सादर
आपकी कविता में भाव इतने अच्छे लगे कि इसे पढ़ने का एक बार नहीं, तीन बार आनन्द लिया।
आपको हार्दिक बधाई, आदरणीया सविता जी।
सौरभ जी, आपकी पंक्तियाँ भी बहुत अच्छी लगीं।
वैचारिक कविता के लिए धन्यवाद, आदरणीया सविताजी.
उजालों के दायरे में काली परछाइयों का सच बड़ा ही भयावह होता है जिसे आपकी रचना बखूबी साझा करती है.
अँधेरा सर्वव्यापी है. यह एक अनायास उपस्थिति है, जबकि उजालों के लिए प्रयास करना पड़ता है. परन्तु, यह भी विड़ंबना ही है कि ऐसे ही उजाले कालान्तर में काली कारस्तानियों के कारण हो जाते हैं.
मैं अपनी एक बहुत पुरानी कविता के एक तदनुरूप अंश को आपसे साझा करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ -
ऐसा नहीं, अँधेरे में भागता हर अभागा
पलायनवादी ही हो,
चकचकाती इस उजली धूप से बच पाने की
इच्छा भी हो सकती है.
उजालों और अँधेरों की अपनी-अपनी विवेचनाएँ और परिस्थितियाँ हो सकती हैं. होती हैं.
इस रचना के लिए पुनः धन्यवाद.
हाँ, इस प्रस्तुति के शिल्प को लेकर एक बात अवश्य कहूँगा कि आवश्यक इंगितों को आपने बढिया निभाया है. किन्तु अधिक शाब्दिक होने से बचने का प्रयास करें.
कविता की कई पंक्तियाँ अनावश्यक हैं, जिनके बिना कविता अधिक कसी हुई और प्रभावी होती. वस्तुतः ऐसी पंक्तियाँ कविता में प्रयुक्त इंगितों की व्याख्या अधिक हु करती हैं. अतः झोल पैदा करती हैं.
दूसरे, ये प्रभु सुन कर दें अँधेरा चारों तरफ
की जगह इसे ऐसे पढ़ें -
हे प्रभु, सुन !
कर दें अँधेरा..
चारों तरफ
कौन अधिक संप्रेषणीय है ?
विश्वास है, आप इशारा समझ गयी होंगीं.
शुभेच्छाएँ
विजय भैया सादर नमस्ते .............शुक्रिया दिल की गहराइयों से आदरणीय विजय भैया आपका ..आप यहाँ भी मिल ही गये .....अपनों के लिय दुनिया बहुत छोटी है :)
चाचाजी सादर नमस्ते ..............आभार आपका दिल से ....अप्र्रुब से था कि शायद मन की उड़ान सही है पर किसी के ना बोलने पर लगता है ना बकवास ही है ...आपने आकार कमेन्ट कर राहत की सांस दी ..दिल से शुक्रिया आपका चाचाजी
सविता जी
अंधकार की भी अपनी उपियोगिता है यह आपने अच्छी तरह समझाया i सादर i
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