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देता  है  आवाजें  रूक-रूक  क्यों मेरी खामोशी को
थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को
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कब  मागे  मयखाने  साकी  अधरों ने उपहारों में
नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को
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देखेगी  तो  कर  देगी  फिर  बदनामी  वो तारों तक
अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को
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बेगानों  की  महफिल  में  तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों  की  महफिल  में  कैसे अपना लूँ बेहोशी को
***
होते  हो  बेपर्दा   खुद  क्यों  पलपल यूँ हंगामा कर
लोगों का क्या उनको जुटना यारो लज्जत पोशी को
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इनसे ही है रंगीं जीवन बिन इनके वीराना सब कुछ
रिश्ते-नातों   को   मत  कह तू आते हैं खूँ-नोशी को
***
हम आगोशी- आलिंगन        
रूपोशी - पर्दा करना  / मुँह छिपाना
लज्जत पोशी - रस लेना (तमाशा देखना)
(रचना - 31 जुलाई 2010 )
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
Comment
आदरणीय भाई नरेन्द्र जी गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीया राजेश बहन गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आदरणीय भाई गोपाल नारायन जी, सर्वप्रथम गजल को इतना मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद । रचना को पोस्ट करते समय एक मन में संशय सा था । अपकी प्रतिक्रिया से कुछ राहत सी मिली है । शुभ शुभ......
आदरणीय लक्ष्मण भाई , खूब सूरत ग़ज़ल के लिए बधाइयाँ |
बेगानों  की  महफिल  में  तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों  की  महफिल  में  कैसे अपना लूँ बेहोशी को
आदरणीय धामी जी इस खूब्सुरत गज़ल के लिए बधाई स्वीकार करें....
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ..आदरणीय लक्ष्मण जी ..शानदार काफिया तो ग़ज़ल की जान ही बन पड़े हैं ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाई सादर
बहुत बढ़िया गजल कही आपने आद्नीय लक्ष्मण जी, सभी शे'र बहुत अच्छे लगे
होते  हो  बेपर्दा   खुद  क्यों  पलपल यूँ हंगामा कर
लोगों का क्या उनको जुटना यारो लज्जत पोशी को.............सच कहा. दिली बधाई विशेष इस शेर पर
बहुत बढ़िया
बहुत खूब ..वाह वाह
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