२१२२ २१२२ २१२२ २१२
राह पर्वत पर बनाना इतना आसाँ है नहीं
दीप आंधी में जलाना इतना आसाँ है नहीं
सरहदों पे जान देते आज माँ के लाडले
गीत आजादी के गाना इतना आसाँ है नहीं
दोस्ती का हाथ लेकर फिर खड़े अहबाब हैं
जो दफ़न उसको जगाना इतना आसाँ है नहीं
बस्तियां चाहें जला लें आप कितनी भी यहाँ
है हकीकत घर बनाना इतना आसाँ है नहीं
हाथ हाथों से मिलाये हर किसी ने बज्म में
दिल से दिल को पर मिलाना इतना आसाँ है नहीं
सरहदों पे दाग खूनी अब तलक सूखे नहीं
प्रीत दुश्मन से जताना इतना आसाँ है नहीं
गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर
छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं
.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
सरहदों पे दाग खूनी अब तलक सूखे नहीं
प्रीत दुश्मन से जताना इतना आसाँ है नहीं ..हर शेअर का भाव गहरा और उम्दा है बधाई
बढिया है..
किन्तु, अब ग़ज़ल को ग़ज़लियत देने के प्रयास करें. आपके पिछले किसी ग़ज़ल पोस्ट पर वीनस भाई ने भी इशारा किया था.
और मुझे याद है उन्होंने बहुत कुछ कहा था. बह्र पर सम्यक अभ्यास हो जाने के बाद आपका अगला प्रयास अपनी ग़ज़लों में ग़ज़लियत को साधने की होनी चाहिये.
सादर
बस्तियां चाहें जला लें आप कितनी भी यहाँ
है हकीकत घर बनाना इतना आसाँ है नहीं
सच्ची बात!
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हर शेर एक सार्थक बात कहता अपनी छाप छोड़ता ,बहुत बहुत बधाई आपको
घर हक़ीक़त में बनाना ....
हाथ हाथों से मिलाते हैं मिलाने को मगर ... दिल से दिल का भी मिलाना इतना आसाँ है नहीं
कुछ सूझाव ... यदि पसंद आयें
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय हार्दिक बधाई आपको ..... सादर
आदरणीय भाई आशुतोष जी इस बेहतरीन और यथार्थपरक गजल के लिए कोटि कोटि बधाई ।
गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर
छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं............बेहद सुंदर. दिली बधाई आपको आदरणीय डा.आशुतोष जी
आदरणीय आशुतोष जी
बेहतरीन
गाँव यूं तो छोड़ आया था मैं बचपन में मगर
छांव पीपल की भुलाना इतना आसाँ है नहीं
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