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गीत : भाग्य निज पल-पल सराहूँ..... संजीव 'सलिल'

गीत :

भाग्य निज पल-पल सराहूँ.....

संजीव 'सलिल'

*

भाग्य निज पल-पल सराहूँ,

जीत तुमसे, मीत हारूँ.

अंक में सर धर तुम्हारे,

एक टक तुमको निहारूँ.....


नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,

कहें अनकही गाथा.

तप्त अधरों की छुअन ने,

किया मन को सरगमाथा.

दीप-शिख बन मैं प्रिये!

नीराजना तेरी उतारूँ...



हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,

मदिर महुआ मन हुआ है.

विदेहित है देह त्रिभुवन,

मन मुखर काकातुआ है.

अछूते प्रतिबिम्ब की,

अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...


बाँह में ले बाँह, पूरी

चाह कर ले, दाह तेरी.

थाह पाकर भी न पाये,

तपे शीतल छाँह तेरी.

विरह का हर पल युगों सा,

गुजारा, उसको बिसारूँ...



बजे नूपुर, खनक कँगना,

कहे छूटा आज अँगना.

देहरी तज देह री! रँग जा,

पिया को आज रँग ना.

हुआ फागुन, सरस सावन,

पी कहाँ, पी कँह? पुकारूँ...


पंचशर साधे निहत्थे पर,

कुसुम आयुध चला, चल.

थाम लूँ न फिसल जाए,

हाथ से यह मनचला पल.

चाँदनी अनुगामिनी बन.

चाँद वसुधा पर उतारूँ...



*****


चिप्पियाँ: गीत, श्रृंगार, नयन, अधर, चाँद, आँगन, किंशुक, महुआ

Acharya Sanjiv Salil


http://divyanarmada.blogspot.com

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Comment

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Comment by asha pandey ojha on June 11, 2010 at 5:36pm
bahut hee khub surat geet hai ..padh kar man aanndit hua
Comment by sanjiv verma 'salil' on June 9, 2010 at 11:40am
प्रीतम को कंचन करें, होकर सदय गणेश.
तिमिर प्रभाकर से डरे, है प्रताप अनिमेष..

आप सबका धन्यवाद.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 9, 2010 at 8:42am
आचार्य जी प्रणाम , बहुत ही खुबसूरत और ससक्त रचना दिया है आपने , काफ़ी उम्द्दा रचना, बहुत बहुत धन्यबाद,
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on June 8, 2010 at 4:11pm
pranam aacharya jee.....
bahut hi badhiya rachna hai.....
bahut bahut dhanyabaad yahan humlogo ke beech post karne ke liye...
Comment by Kanchan Pandey on June 8, 2010 at 3:20pm
Bhav bihuval kar deney waali yey geet hai, bahut hi sunder,
Comment by Admin on June 8, 2010 at 12:13pm
नयन उन्मीलित, अधर कम्पित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...

परम आदरणीय श्रद्धेय आचार्य संजीव "सलिल" जी शत शत नमन, आप जैसे पारस मणि को अपने बीच मे पाकर पूरा ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार धन्य हो गया, बहुत ही सुंदर गीत आपने लिखा है, इस गीत पर कोई भी टिप्पणी करना मेरे बस की बात नहीं है, फिर भी परंपरा को निभाते हुये मैं कुछ लिखने की हिम्मत जुटा पा रहा हू, बहुत ही खुबसूरत अभिव्यक्ति है, एक एक पक्ति अपने आप मे एक गहन अर्थ छुपाये हुये है, बहुत बहुत धन्यबाद है इस रचना के लिये, आगे भी हमे आप के आशीर्वाद का इन्तजार रहेगा ,

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 8, 2010 at 10:22am
आचार्य जी - गीत की एक एक पंक्ति मानो स्वयं गाती हुई प्रतीत हो रही है ! हमारा अहोभाग्य कि आप जैसी विभूति हम बच्चों का मार्गदर्शन करने के लिए हमारे बीच विधमान है !

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on June 8, 2010 at 9:11am
परम श्रद्धेय आचार्य जी के चरणों में सादर प्रणाम

कुछ लिखना तो संभव ही नहीं हो पा रहा है अभी इतना मंत्र मुग्ध हूँ. प्रातः काल से ना जाने कितनी बार पढ़ चुका हूँ. इस रचना को पढ़कर कौन सम्मोहित हुए बिना रह सकता है?..प्रणय रस में डूबने के पश्चात किसके मन की वीणा के तार झंकृत हुए बिना रह सकते हैं?......कहीं स्वप्नलोक में ले जाती है यह कविता............ इतने सुन्दर शब्दों का प्रयोग और अलंकारों का दर्शन तो समुद्र में से मोती खोज लाने के तुल्य है......................

आपके आशीर्वाद की प्रतीक्षा में.....
राणा प्रताप सिंह
(प्रयाग)

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