रास पर एक प्रयास और -
अपनेपन की रीत पुरानी अब भी है
गाँवों का जीवन लासानी अब भी है
जिसकी गोद सुहाती थी भर जाड़े में
उस मगरी पर धूप सुहानी अब भी है
जिनमें अपना बचपन कूद नहाया था
उन तालाबों में कुछ पानी अब भी है
बाँह पसारे राह निहारे सावन में
अमुवे की इक डाल सयानी अब भी है
गर्मी की छुट्टी शिमला में बुक लेकिन
रस्ता तकते नाना नानी अब भी है
ठाकुर द्वारे में झालर संझ्या दीपक
चरणामृत का पावन पानी अब भी है
ऊब मिटाने आजा पिज़्ज़ा बर्गर की
वो तिल के लड्डू ,गुड़ धानी अब भी है
बोर- मतीरे, तेंदूफल, गुंदे- केरी
कच्ची इमली दांत खटानी अब भी है
चौक चबूतर काग कबूतर वाले वो
चींटी तक को दाना पानी अब भी है
पंचम में चरवाहों की मीठी ताने
हलवाहों की राग लुभानी अब भी है
बूढ़े बरगद सब गदगद हो जायेगें
आशीषों की छाँव सुहानी अब भी है
धूल लिपट जायेगी पाँवों से झटपट
राहें सब जानी पहचानी अब भी है
बूढ़ा कब होता है पनघट का रस्ता
सर पर गगरी शोख़ जवानी अब भी है
तुम ‘खुरशीद’ भले भूले लेकिन तुमको
रोज चितारे एक जनानी अब भी है
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सादर नमन, बहुत सुन्दर प्रस्तुति, सारे रंग व्याप्त हैं!
पढकर मजा आ गया, जैसे सारे चित्र सामने हों!
इस सुन्दर एवं अनुपम् प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई।
आदरणीय हरिवल्लभ शरमा जी ,गोपालनारायण साहब ,जितेंदर जी .प्रेमजी ,विजयशंकर जी ,विजयप्रकाश जी आप सभी विद्जनों का हृदयतल से आभारी हूं |मुझ मंच के नये सदस्य को जो स्नेह आप सभी से मिला उससे मैं अभिभूत हूं |आप सभी का आशीर्वाद और स्नेह बना रहें |सादर
ठाकुर द्वारे में झालर संझ्या दीपक
चरणामृत का पावन पानी अब भी है
ऊब मिटाने आजा पिज़्ज़ा बर्गर की
वो तिल के लड्डू ,गुड़ धानी अब भी है...गाँव का स्नेहिल वातावरण का सचित्र वर्णन करती ग़ज़ल हेतु बहुत बधाई आपको आदरणीय
खुर्शीद जी
आप इस मंच पर नये नये आये पर आपने अपना स्थान बना लिया i आपकी लेखनी को मै नमन करता हूँ i गजल के बारे में कुछ भी कहना बेमायने है i सर्वोत्तम i
बहुत ही सुंदर भाव, अपनी और आकर्षित करते हुए. हार्दिक बधाई आपको आदरणीय खुर्शीद साहब
भाव विह्वल करती रचना हेतु बधाई जनाब खैराड़ी जी.
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