रखे मुझको भी हरदम बाख़बर कोई मेरे मौला
बड़े भाई के जैसा हो बशर कोई मेरे मौला
हुआ घायल बदन मेरा हुए गाफ़िल कदम मेरे
मेरे हिस्से का तय करले सफ़र कोई मेरे मौला
मुझे तड़पा रही है बारहा क्यूं छाँव की लज्ज़त
बचा है गाँव में शायद शजर कोई मेरे मौला
उदासी के बियाबाँ को जलाकर राख कर दे जो
उछाले फिर तबस्सुम का शरर कोई मेरे मौला
खड़ा हूं आइने के सामने हैरतज़दा होकर
इधर कोई मेरे मौला उधर कोई मेरे मौला
मेरी तक़दीर में लिक्खी न होती ठोकरें इतनी
अगर मुझमें रहा होता हुनर कोई मेरे मौला
मुझे मालूम हैं ‘खुरशीद’ होने के फ़राइज़ भी
न रक्खूंगा उजालों में कसर कोई मेरे मौला
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
बहुत खुबसुरत
आदरणीय खैरादी जी,
सिद्ददत से रची इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! --
"मुझे तड़पा रही है बारहा क्यूं छाँव की लज्ज़त
बचा है गाँव में शायद शजर कोई मेरे मौला"
खड़ा हूं आइने के सामने हैरतज़दा होकर
इधर कोई मेरे मौला उधर कोई मेरे मौला
क्या खूब बात कही भाई खुर्शीद जी , वाह !! ढेरों दाद क़ुबूल फरमाएं |
खड़ा हूं आइने के सामने हैरतज़दा होकर
इधर कोई मेरे मौला उधर कोई मेरे मौला
आदरणीय खुर्शीद भाई इस बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिएबेहद बधाई ...
बहुतउम्दा गजल है बधाई
खुर्शीद भाई
जितना समझ पाया उतने में मजा आया i पर उर्दू के कुछ कठिन शब्द से बाधा हुयी i आप इनके अर्थ प्रस्तुति के साथ दे सकते है i बाहुनर कलम की दाद देता हूँ i सादर i
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