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देख रहा था

थकी हुई  बस में

थके हुए चेहरे

गाल पिचके हुए

हड्डियाँ उभरी हुई

अवसादित परिणति में

एक सिगरेट सुलगाली

बढते विकारों पर

मैंने किया प्रदान

अपना उल्लेखनीय योगदान

देख रहा था,

लोगों को चढ़ते-उतरते

सीटों पर लड़ते- झगड़ते

शोरगुल के साथ- साथ

पसीने की दुर्गन्ध भरी है

बस अब भी वहीँ खड़ी है

लोग बस को धकिया रहे हैं

ड्राइवर साहब गियर लगा रहे हैं

धीरे धीरे बस चल रही है  

जैसे उम्र अब शाम की तरह

धीरे –धीरे  ढल रही है

मैं मन को एकाग्र कर रहा हूँ

बहुत बड़ा पुरुषार्थ कर रहा हूँ

मन चाहता है उतर जाना

तभी तुम कुंचित का आना

तुम्हारी अनोखी महक का

बस मैं समां जाना

देख रहा था,

लोगों को प्रेम से

अपनी अपनी सीटों पर

थोडा थोडा सरकते

पर तुमने चुना वही स्थान

जो कुछ देर पहले

बना हुआ था, मेरे लिए

एक मरघट, एक श्मशान

तुम बैठीं पर मुझसे हट कर

सिगरेट फिकवा दी तुमने

मुझ से हठ कर

सिगरेट फेकने के बाद

मैंने सुगंध को जाना

एक नए सत्य को पहचाना

सुगंध के अभाव मैं

लोग दुर्गन्ध फैलाते हैं

न जाने कितने बहाने कर

सिगरेट पीते जाते हैं

तुम सबके जीवन मैं आ जाओ

और मेरी तरह

सबकी सिगरेट लेकर

किसी बस स्टॉप पर

चुपके से उतर जाओ !!

 

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित”

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Comment

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Comment by Hari Prakash Dubey on November 20, 2014 at 12:12pm

आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया एवं प्रोत्साहन के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण रामानुज जी !

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 20, 2014 at 10:34am

सिगरेट फेकने के बाद

मैंने सुगंध को जाना

एक नए सत्य को पहचाना

सुगंध के अभाव मैं

लोग दुर्गन्ध फैलाते हैं

न जाने कितने बहाने कर

सिगरेट पीते जाते हैं---------इस पंक्तियों के लिए विशेष दाद देना चाहूंगा  सुंदर रचना के लिए हार्दिक  बधाई 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 9:42pm

उत्साहवर्धन के लिए ,आपका हार्दिक आभार सुश्री राजेश कुमारी जी !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 19, 2014 at 8:46pm

सिगरेट छुडवाने के लिए बहुत बढ़िया विचार सुगंध के अभाव में लोग दुर्गन्ध फैलाते हैं ...क्या बात है 

बढ़िया अभिव्यक्ति आँखों के समक्ष एक चित्र सा सजीव करती .बधाई आपको 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 6:31pm

आपका हार्दिक धन्यवाद आदरणीय योगराज जी।

साभार


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on November 19, 2014 at 11:28am

बहुत खूब आ० हरिप्रकाश दुबे जी।

Comment by somesh kumar on November 19, 2014 at 8:30am

सुंदर अभिव्यक्ति ,मुझे भी इसकी बास नहीं भाती यूँ तो सार्वजनिक वाहनों में कम चलना होता है पर जब यात्रा के दौरान ऐसे लोग मिलते हैं तो उन्हें मना करना पड़ता है .एकाध बार बहस भी करनी पड़ती है ,कितना अच्छा हो लोग दुसरे की असुविधा को समझें और इस व्यसन को सार्वजनिक स्थानों पर करने से बचें |एक बार पुनः बधाई 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 18, 2014 at 7:53pm

आपका हार्दिक आभार डॉक्टर विजय शंकर जी ,आशा है आपका स्नेह और मार्गदर्शन हमेशा बना रहेगा l

Comment by Dr. Vijai Shanker on November 18, 2014 at 7:14pm
मैं मन को एकाग्र कर रहा हूँ
बहुत बड़ा पुरुषार्थ कर रहा हूँ

सुगंध के अभाव मैं
लोग दुर्गन्ध फैलाते हैं
न जाने कितने बहाने कर
सिगरेट पीते जाते हैं
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय हरी प्रसाद दुबे जी , बधाई।
Comment by Hari Prakash Dubey on November 18, 2014 at 6:51pm

आदरणीय डा. साहब ,आपका उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार !

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