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अतुकांत - स्वीकार हैं मुझे तुम्हारे पत्थर ( गिरिराज भंडारी )

अतुकांत - स्वीकार हैं मुझे तुम्हारे पत्थर

*****************************************

स्वीकार हैं मुझे आज भी

कल भी थे स्वीकार , भविष्य मे भी रहेंगे

तुम्हारे फेके गये पत्थर

तब भी फल ही दिये मैनें

आज भी दे रहा हूँ , और मेरा कल जब तक है देता रहूँगा

मैं जानता हूँ  और मानता हूँ , इसी में तो मेरी पूर्णता है

यही मेरी नियति है , और उद्देश्य भी

चाहे मेरी जड़ों को तुमने पानी दिया हो या नहीं

मैं अटल हूँ , अपने उद्देश्य में

पर आज मना करने का जी कर रहा है , पत्थरों के लिये

इसलिये नहीं कि , मुझे अब पीड़ा होती है

इसलिये , केवल इस लिये कि,

अब तुम्हारे फेके पत्थर फलों तक नहीं पहुँच रहे

मेरे अनुभवों से पके बहुत से फल ऊपर हैं

बहुत ऊपर ,

पत्थरों की पहुँच और तुम्हारे निशाने से दूर  

तो, चढ़ जाओ ,

मेरे घुटनों पर पैर रख के, खड़े हो जाओ मेरे कन्धों पर , सर पर

और तोड़ लो , मेरे अनुभवों से पके मीठे फल

इससे पहले कि समय मेरी जड़ों को कमज़ोर कर दे 

और मै गिर पड़ूँ धरती पर

भरभरा के ।

*****************

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 10, 2014 at 10:49am

आदरणीय सोमेश भाई , सराहना और अनुमोदन के लिये दिली शुक्रिया ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 9, 2014 at 3:25pm

आदरणीय गिरिराजभाईजी, आपकी इस रचना के कथ्य और तदनुरूप विचारों के लिए हार्दिक बधाई. बहुत ही गहरी सोच हुई है.

शिल्प के तौर पर रचना को तनिक और साधना होगा. वैचारिक रचनाओं को वाचाल नहीं होनी चाहिये. वैसे, आपकी कई समृद्ध अतुकान्त रचनाओं पर मैं पहले भी मुग्ध हो चुका हूँ. इस प्रस्तुति के कथ्य पर भी मन मुग्ध है.
सादर बधाइयाँ.

Comment by Rahul Dangi Panchal on December 9, 2014 at 3:04pm
वाह सर वाह हम जरुर आपके अनुभवो को ग्रहण करेगे!
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 9, 2014 at 1:53pm

आदरनीय  अनुज

गहरे सागर में पैठ कर आप यह मोती  लाये  हैं i एक शाश्वत सत्य को शब्दो में कैसा पिरोया है  ? वृक्ष का रूपक लेकर आपने मानव्  जीवन का सत्य प्रकट किया है i अब नयी पीढी इसेआत्म्सात कर पार्ती है या नहीं i पर आपकी रचना के लिए Hats off- .


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2014 at 11:34am

बहुत खूब आ० गिरिराज भंडारी जी।

Comment by somesh kumar on December 9, 2014 at 9:57am

jivan ke anubhv,pido ke jrie,smjhta hue

 jane kyu kuch ptthr meri sankhon tk nhin  jate

mere bcche ab kuch paid ho gye hain shyad 

sunder ytharthpurn rchna sir


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 9, 2014 at 9:23am

आदरणीय मिथिलेश भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका बहुत शुक्रिया !

खूबसूरत शेर के लिये आपको बधाइयाँ ।

निवेदन // आदरणीय मेरा इशारा उन बुज़ुर्गों की ओर है , जिनकी दौलत पर तो निशाना ठीक बैठता है बच्चों का, लेकिन उनके अनुभवों का तिरिस्कार किया जाता है, या उन्हे पाने की कोई कोशिश ही नही होती। - समय उनको कमज़ोर भी करता है और वो एक दिन काल के गाल मे समा भी जाते हैं । शायद अब बात साफ हुई हो ?


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 9, 2014 at 9:12am

आदरणीय शयाम नारायण भाई , रचना के एसराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 8, 2014 at 11:50pm

तो, चढ़ जाओ ,

मेरे घुटनों पर पैर रख के, खड़े हो जाओ मेरे कन्धों पर , सर पर

और तोड़ लो , मेरे अनुभवों से पके मीठे फल

इससे पहले कि समय मेरी जड़ों को कमज़ोर कर दे 

और मै गिर पड़ूँ धरती पर

भरभरा के । ..................................................  सुन्दर रचना के लिए आपको बधाई 

और एक निवेदन भी ......

 पुराने पेड़ से हम तो तजुर्बा खूब लेते है 

बुजुर्गो की सदाओं से जरा से आज चेते है 

नहीं होती कभी कमजोर जड़ उस पेड़ की मानो 

हमें देते जो मीठे फल हमेशा छाँव देते है 

Comment by Shyam Narain Verma on December 8, 2014 at 5:46pm

" बहुत सुन्दर ॥ अतुकांत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ................. "

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