एक धरा है एक गगन है
किंतु विभाजित अपना मन है
मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है
याद तुम्हारी महकाये मन
इस सहरा में इक गुलशन है
स्वर्ग तिहारे चरणों की रज
मातृधरा तुझको वंदन है
चौक बड़ा सा एक चबूतर
यादों में कच्चा आँगन है
नहीं बहलता खुशियों से मन
ग़म से अपना अपनापन है
आँसू बाती आँखें दीपक
दुख की लौ में सुख रोशन है
घाव दिये हैं जिनने दिल को
उनका दिल से अभिनन्दन है
रोजाना ढूँढू जिसमें ख़ुद को
माज़ी वो धुँधला दर्पण है
.
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय खुर्शीद खैराड़ी जी बहुत सुंदर ग़ज़ल है। हर शेर मानीखेज़ है बहुत बहुत बधाई आपको।
//मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है//
आहा ! क्या खुबसूरत ख्याल हैं, बहुत ही प्यारी ग़ज़ल प्रस्तुत हुई है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय खुर्शीद खैराडी जी .
एक अच्छे भाव का वहन करती सुंदर रचना की बधाई आपको सादर !
मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है
याद तुम्हारी महकाये मन
इस सहरा में इक गुलशन है
आँसू बाती आँखें दीपक
दुख की लौ में सुख रोशन है
घाव दिये हैं जिनने दिल को
उनका दिल से अभिनन्दन है
सुंदर भाव उसमें से मेरा चुनाव ,बधाई भाई जी
मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है
वाह बहुत खूब सर जी सभी अशआर बहुत पसंद आये बधाई ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
आदरणीय खुर्शीद जी बहुत ही सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई !
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