संक्रमित संस्कृति हमारी, सभ्यता गतिमान है |
सद्कथाएँ मिथ न हों इसका हमे ना भान है |
पर्यावरण दूषित हुआ यह क्या नही प्रमाण है ?
लुप्तप्राय कुछ जंतु जिसमें गरुण का अवसान है |
अंधानुकर विज्ञान का यह क्या हमारी भूल है ?
उस कृत्य से वंचित हुए हम जो जीवन का मूल है ?
सारा जहाँ ही देखिये जिस कृत्य में मसगूल है,
भौतिकता की चाह में सर्वत्र चुभता शूल है |
कल्पतरु मेरी ये वसुधा अनगिनत उपहार देती,
थोड़ा भी यदि श्रम करें प्रतिफल हमे आहार देती |
कृषि-श्रेष्ठ ये भारत हमारा, मृदा भी उर्वर हमारी |
उपयोग अति रासायनिक खाद दे जाती बिमारी |
जल प्रदूषण, वायु दूषण, मृदा एवं ध्वनि प्रदूषण,
इन सभी से भी अधिक है व्याप्त वैचारिक प्रदूषण |
क्या हम कभी संकल्प ले सकते हैं इस परिप्रेक्ष्य में,
दूषण रहित निज कर्म, संततियाँ फलें सापेक्ष्य में ?
हे श्रेष्ठकृति विद्वज्जनों! मिलकर सभी विचार कर लें |
मिथ दम्भ भरना छोड़के, कर्तव्य का आचार कर लें |
मन वचन केवल न, हो निज कर्म भी द्रुत दामिनी सी,
दूसरों को छोड़ पहले स्वयं में संचार कर लें |
(संसोधित)
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शरद सिंह “विनोद”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
अच्छी भावाभिव्यक्ति....... बधाई
आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर की बात पर विचार जरुर करेंगे, ऐसा विश्वास है. सादर ...
आदरणीय विनोद जी अच्छी भावाभिव्यक्ति है बहुत बहुत बधाई आपको
इस कविता में गीतिका और हरिगीतिका की झलक है अगर उस मीटर पर इसे रचा जय तो रचना बहुत खूबसूरत होगी i सस्नेह i
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