मैं अपनी मुहब्बत को …एक रचना
मैं अपनी मुहब्बत को इक मोड़ पे छोड़ आया हूँ
इक ज़रा सी ख़ता पे मैं हर क़सम तोड़ आया हूँ
जाने कितने लम्हे मेरी साँसों की ज़िंदगी थे बने
मैं तमाम ख़्वाब उनकी पलकों में छोड़ आया हूँ
जिसकी मौजूदगी में खामोशी भी बतियाती थी
अब्र की चिलमन में वो माहताब छोड़ आया हूँ
बन के हयात वो हमसे क्यों बेवफाई .कर गए
उनकी दहलीज़ पे मैं हर आहट छोड़ आया हूँ
हिज्र का दर्द चश्मे सागर में न सिमट पायेगा
कश्ती कागज़ की मैं साहिल पर छोड़ आया हूँ
हर सलवट से बयां गुज़री रात के अफ़साने होंगे
मैं उनके लबों पे महकते अहसास छोड़ आया हूँ
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
//हर सिलवट से बयां, गुज़री रात के अफ़साने होंगे
मैं उनके लबों पे महकते अहसास छोड़ आया हूँ//
वाह वाह क्या कहने आदरणीय, इस सुन्दर अभिव्यक्ति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी.
हर सलवट से बयां गुज़री रात के अफ़साने होंगे
मैं उनके लबों पे महकते अहसास छोड़ आया हूँ ................. बहुत खूब कही आदरणीय सुशील भाई , हार्दिक बधाई ।
जिसकी मौजूदगी में खामोशी भी बतियाती थी
अब्र की चिलमन में वो माहताब छोड़ आया हूँ
आदरणीय सुशील सरना जी , उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |
क्या बात है... सुन्दर
हिज्र का दर्द चश्मे सागर में न सिमट पायेगा
कश्ती कागज़ की मैं साहिल पर छोड़ आया हूँ...........speechless....sir ji ...bahut bahut khoobsoorat sher kaha hai ....wah wah wah
वाह! आदरणीय सरना जी, बहुत सुंदर. वैसे मुझे गजल विधा का ज्ञान तो नही किन्तु आपकी रचना गजल के बहुत करीब है. बहुत-बहुत बधाई
हर सिलवट से बयां, गुज़री रात के अफ़साने होंगे
मैं उनके लबों पे महकते अहसास छोड़ आया हूँ
वाह वाह ... सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सुशील सरना जी....
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