बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ
अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ
मुझमें ही शैतान कहीं है और कहीं है इन्साँ
माने या मत माने दुनिया मैं ही कहीं ख़ुदा हूँ
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
धर्मेन्द्र जी
अच्छी गजल है . मुझे आपका आख़िरी शेर भी बहुत सोना लगा .
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ -- लाजवाब ,इस शे र के लिये और गज़ल के लिये आपकोअ हार्दिक बधाई ।
आदरणीय धर्मेन्द्र जी बेहतरीन अशआर से सजी उम्दा ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई....
ये अशआर बहुत बेहतरीन हुए है-
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ
धर्मेन्द्र जी बहुत खूब--बधाई --भ्रमर ५
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ
आदरणीय धर्मेंदर जी ,सभी अशआर बेहद पसंद आये ,आपको हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |
आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी बहुत सुन्दर ,
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ...वाह
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ..........वाह , बधाई आपको इस रचना पर ! सादर"
वाह क्या बात है आदरणीय धर्मेन्द्र जी सारे अश'आर लाजवाब हैें
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ .....भाव सुंदर लगे बधाई
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