बह्र : २१२२ २१२२ २१२२ २१२
रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद
शर्बत-ए-आतिश पिला दे कोई जल जाने के बाद
यूँ कयामत ढा रहे वो गर्मियाँ आने के बाद
कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
शुक्रिया आ. somesh kumar जी
achchi ghazal hui hai bhai...
kya kahne waaah waaah waaaah
कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
वाह आदरणीय बहुत खूबसूरत ग़ज़ल
कुछ दिनों से है बड़ा नाराज़ मेरा हमसफ़र
अब कोई गुलशन यकीनन होगा वीराने के बाद--वाह्ह्ह्हह क्या कहने
बहुत प्यारी ग़ज़ल हुई है आ० धर्मेन्द्र जी ,दिली बधाईयाँ
वाह धर्मेन्द्र जी क्या खूब ग़ज़ल कही हे ....बहुत बहुत बधाई आपको
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
वाहहहहह
आदरणीय धर्मेन्द्र जी,
रूह को सब चाहते हैं जिस्म दफ़नाने के बाद
दास्तान-ए-इश्क़ बिकती खूब दीवाने के बाद....बहुत सुन्दर , हार्दिक बधाई !
आदरणीय धर्मेन्द्र जी ,
सुन्दर गजल के लिए दिल से बधाई.
जब वो जूड़ा खोलते हैं वक्त जाता है ठहर
फिर से चलता जुल्फ़ के साये में सुस्ताने के बाद
एक वो थी एक मैं था एक दुनिया जादुई
और क्या कहने को रहता है इस अफ़साने के बाद--------- सुभानाल्लाह --- क्या गजल कही है . आदरणीय धर्मेन्द्र जी .
सुन्दर ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय धर्मेन्द्र जी
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