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जब धरा पर रह न पाये जो कभी औकात से
चाँद पर पहुँचो भले ही क्या भला इस बात से
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मुफ्तखोरी की ये आदत यार चोरी से बुरी
चोर भी समझा रहा ये बात हमको रात से
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बाँटने में हर हुकूमत, व्यस्त है खैरात ही
देश का, खुद का भला कब, हो सका खैरात से
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हो न पाये कौवे शातिर, लाख कोशिश बाद भी
बाज आयी कोयलें कब, दोस्तों औकात से
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प्यार होना भी जरूरी औ’ जरूरी दौलतें
चल नहीं पाती अकेले, जिन्दगी जज्बात से
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बेअसर हमको तो धूपें जेठ की भी हो गयीं
भीगता पलपल है दामन, अश्क की बरसात से
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छोड़ दें इससे ‘मुसाफिर’, स्वप्न का भी स्वप्न क्या
लड़ न पाये स्वप्न को गर यार हम हालात से
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’
Comment
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी,
वाह--वाह बहुत खूब . आनन्द आ गया .बहुत बधाई
मुफ्तखोरी की ये आदत यार चोरी से बुरी
चोर भी समझा रहा ये बात हमको रात से----वाह वाह
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हो न पाये कौवे शातिर, लाख कोशिश बाद भी
बाज आयी कोयलें कब, दोस्तों औकात से------बेहतरीन शेर अच्छा व्यंग्य
बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई लक्ष्मण भैय्या दिली बधाइयां
एक इस्स्लाह यदि ठीक लगे तो --बेअसर हमको तो धूपें जेठ की भी हो गयीं---इसको निम्नवत लिखें तो कैसा रहे (धूप को धूपें.बहु वचन में लिखना मेरे ख़याल से गलत होगा )
धूप हम पर जेठ की भी बेअसर सी हो गई
**बहुत बहुत बधाई
आदरणीय लक्ष्मण जी बहुत उम्दा गज़ल कही क्या कहने हर शेर लाजवाब है यूँ तो मतले ने ही समां बांध दिया है।
बहुत बहुत बधाई ......
अरे आ० धामी साहेब! आपके तसव्वुर के तो हम दीवाने हो गये! इस मंच पर मेरे द्वारा पढ़ी गयी अब तक की सबसे बेहतरीन गज़ल!
हर शेर लाजव़ाब!
दो-तीन शेर तो बरसों कानों में गूजते रहेंगे!!
बेअसर हमको तो धूपें जेठ की भी हो गयीं
भीगता पलपल है दामन, अश्क की बरसात से लाजवाब लाजव़ाब!
प्यार होना भी जरूरी औ’ जरूरी दौलतें
चल नहीं पाती अकेले, जिन्दगी जज्बात से क्या बात है ! बेहद उम्दा!! ये शेर तो आपके नाम के साथ अमर हो गया!
मात्रा गिराने की छूट को कैसे कम से कम प्रयोग करें! ये गजल उसकी बानगी देती है!अभिनन्दन!
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