मुतकारिब मुसम्मन सालिम
१२२ १२२ १२२ १२२
तुम्हे आज प्रिय नीद ऐसी सुलायें
झरें इस जगत की सभी वेदनायें I
नहीं है किया काम बरसो से अच्छा
चलो नेह का एक दीपक जलायें I
गरल प्यार में इस कदर जो भरा है
असर क्या करेंगी अलायें-बलायें I
तुम्हारी अदा है धवल -रंग ऐसी
कि शरमा गयी चंद्रमा की कलायें I
जगी आज ऐसी विरह की तड़प है
सहम सी गयी है सभी चेतनायें I
नहीं याद करता शुभे अब तुम्हारी
हमी मौन रो लें तुम्हें क्यों रुलायें I
चलो आज ‘गोपाल’ नजदीक बैठो
हमीं जाम इस शाम तुमको पिलायें I
.
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण सर, आप इसे एक प्रयास कह रहें है और ये ग़ज़ल अपनी समस्त विशेषतायें लिए हुए है , बहुत ही शानदार रचना है , हार्दिक बधाई ! सादर
तुम्हारी अदा है खुश-रंग ऐसी
कि शर्मा गयी चंद्रमा की कलायें I
जगी आज ऐसी विरह की तड़प है
सहम सी गयी है सभी चेतनायें I
लाजव़ाब! आदरनीय!
वाह वाह वाह आदरणीय गोपाल नारायण सर ये मुकम्मल ग़ज़ल हुई ... एक से बढ़कर एक अशआर ... मतला क्या खूब हुआ है
मक्ता भी कमाल है ... शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं -
नहीं है किया काम बरसो से अच्छा
चलो ज्योति का एक दीपक जलायें I........ बहुत सुन्दर
गरल प्यार में इस कदर जो भरा है
असर क्या करेंगी अलायें-बलायें I .......... उम्दा शेर
तुम्हारी अदा है खुश-रंग ऐसी
कि शर्मा गयी चंद्रमा की कलायें I..... कमाल का अशआर शर्मा को शरमा करने से और खुबसूरत लगेगा
जगी आज ऐसी विरह की तड़प है
सहम सी गयी है सभी चेतनायें I............ बहुत बेहतरीन दिल से दाद हाज़िर है
नहीं याद करता शुभे अब तुम्हारी
हमी मौन रो लें तुम्हें क्यों रुलायें I........ वाह वाह
क्या खूब ग़ज़ल कही है सर
दिल से बधाई
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