चाँद,
फ़क़त तुम्हारा नहीं,
मेरा भी है.
इसलिए नहीं की मै,
उसे निहारता हूँ,
किसी रेतीले किनारे से
या इंतज़ार करता हूँ,
ईद के चाँद का.
मै व्रत भी नहीं रखता,
किसी तीज या चौथ का.
फिर भी चाँद मेरा भी है.
इसलिए, कि मै जहाँ जाता हूँ,
ये मेरे पीछे पीछे चला आता है.
मेरे हमसाये की तरह.
और मेरा हाल-ए–दिल
बयां कर देता है उसके सामने
जो मुझसे मीलों दूर है.
.
.
चलो...
एक समझौता कर लें,
इस बात का फैसला कर लें,
कि चाँद कितना तुम्हारा है,
और कितना मेरा.
यूँ कर लेते है कि बस,
बाँट लेते है हम तुम
अपने अपने हिस्से का चाँद.
जिस ओर भी चाँद में रौशनी हो,
वो हिस्सा तुम रख लेना.
और अँधेरे वाला हिस्सा
कर देना मेरे हवाले.
दरअसल वही हिस्सा तो
मुझे सूट भी बहुत करता है.
आदत जो हो गयी है,
इतने बरसों से
गुमनामी के अँधेरों में रहने की
तुम्हारे बगैर......
.
नूर
मौलिक /अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. विजय शंकर जी
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
बहुत ही खूबसूरत रचना .....'सूट' हटा दें तो और अच्छा रहेगा ....सादर
दरअसल वही हिस्सा तो
मुझे रास भी आयेगा
वाह वाह वाह नूर जी . इस गजलेतर रचना की ख़ूबसूरती को भी प्रणाम . क्या बात है --
और मेरा हाल-ए–दिल
बयां कर देता है उसके सामने
जो मुझसे मीलों दूर है और
और अँधेरे वाला हिस्सा
कर देना मेरे हवाले.
दरअसल वही हिस्सा तो
मुझे सूट भी बहुत करता है.
आदत जो हो गयी है,
इतने बरसों से
गुमनामी के अँधेरों में रहने की
-
तुम्हारे बगैर. इस रचना पर आपको मेरी शतसः ----------------------------------------
मेरा लालच मात्र ये है कि ऐसी बातों से मेरी दो डायरियाँ भरी हुई हैं, इस अल्हडपन को नाम मिल जाए तो ये भी चेप चाप के नक्की करें :))
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