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ग़ज़ल :- आज जिस रंग में ढालोगे मैं ढल जाऊँगा

फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन/फ़इलुन

आज जिस रंग में ढालोगे मैं ढल जाऊँगा
दैर कर दोगे तो हाथों से निकल जाऊँगा

एक हालत में यहाँ कौन रहा है,मैं भी
जैसे हर चीज़ बदलती है,बदल जाऊँगा

ऐसे ही बनते हैं,दुनिया में मिसाली किरदार
मैं भी फूलों की तरह काँटों में पल जाऊँगा

मोम या बर्फ़ के जैसा नहीं,पर जानता हूँ
मैं तिरे जिस्म की गर्मी से पिघल जाऊँगा

मैं तो इक ख़ाक का पुतला हूँ,तू मिस्ल-ए-ख़ुर्शीद
पास आऊँगा अगर तेरे तो जल जाऊँगा

एक मुद्दत से ये हसरत रही मेरे दिल में
मैं भी इक रोज़ "समर" शह्र-ए-ग़ज़ल जाऊँगा

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on June 15, 2015 at 11:35pm
आली जनाब गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,ग़ज़ल में शिर्कत और सुख़न नवाज़ी के लिये आपका तहे दिल से शुक्रगुज़ार हूँ ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 15, 2015 at 7:04pm

आदरणीय समर भाई , खूब सूरत मतके से शुरु हुआ सफर  मक़्ते तक खुशनुमा रहा , मौबारकबाद हाज़िर है , कुबूल करें  ॥ 

मतल में दैर को देर कर लीजियेगा , दैर आप जानते ही हैं एक अलग हर्फ् है  , जिसका अर्थ मंदिर है , इस लिये अर्थ का अनर्थ हो रहा है ।

Comment by मनोज अहसास on June 15, 2015 at 3:22pm
कितनी खूबसूरत प्रस्तुति
बेमिसाल
समीक्षा और सुझाव की क्षमता तो हममे है नहीं
हम तो बस खो जाते है एक नए अहसास में आपको पढ़कर
आपमें कविता और विनम्रता का अद्भुत मिश्रण है
सादर
Comment by narendrasinh chauhan on June 15, 2015 at 12:45pm

क्या खूब गजल कही है

Comment by kanta roy on June 15, 2015 at 8:04am
आज जिस रंग में ढालोगे मैं ढल जाऊँगा
दैर कर दोगे तो हाथों से निकल जाऊँगा.........॥वाह !!! क्या खूब गजल कही है आपने ।।बधाई
Comment by दिनेश कुमार on June 15, 2015 at 7:21am

बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय समर कबीर सर .

मुबारक बाद क़ुबूल करें सर .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 14, 2015 at 10:55pm

अहा हा हा ..लाजवाब समर सर! हर शेर पर खुद ब खुद दाद निकल गई!नमन!

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 14, 2015 at 10:08pm
वाह वाह वाह बहुत सुन्दर आनन्द आ गया बधाई हो जनाब समर साहब

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 14, 2015 at 9:11pm

वाह  वाह  बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई आ० समर भाई जी ,दिली दाद  हाजिर है |इसको पढ़ते हुए अपनी ग़ज़ल याद आ रही थी --मोम का बुत न समझिये जो पिघल जाऊँगी ,आग हाथों से उठाकर मैं निगल जाऊँगी 

Comment by विनय कुमार on June 14, 2015 at 3:25pm

बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय समर कबीर साहब , बधाई क़ुबूल करें..

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