“दोनो पैरों के अँगूठों में बन्धी रस्सी भी खोल दो, चिता पर कोई भी गाँठ या बन्धन नहीं होता..”
“चिता पर सारे बन्धन खत्म हो जाते हैं” - किसी और ने कहा.
सुनते ही राकेश पत्नी प्रिया और उसके बीच के सबसे बडे़ बन्धन एक साल के बेटे को अपने सीने से लगाये प्रिया के निर्जीव शरीर को चुपचाप देखता हुआ फिर से फ़फ़क पड़ा.
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(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय राहुल जी,
इस मंच पर आपका स्वागत है.
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रचना पर आने के लिये आभार.
सादर.
आदरणीया कान्ता जी,
बन्धन मुक्ति के आयाम को और स्पष्ट करते हुये आपने विचार देने के लिये आभार.
सादर.
आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी, बहुत ही मार्मिक लघुकथा हुई है,
बधाई आप को .
मार्मिक /बेहतरीन
अनोखा बंधन
मार्मिक! केवल महसूस किये जा सकते हैं, अवर्णनीय आदरणीय शुभ्रांशु जी!
मार्मिक .अद्वितीय ,,,,कम शब्द हैं पर सीधे दिल तक पहुँच रही है |
आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी, बहुत ही मार्मिक लघुकथा हुई है, आपने बंधन को विशिष्ट तरीके से परिभाषित करता हुआ आयाम प्रस्तुत किया है. इस सशक्त सार्थक और सफल लघुकथा की प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई
आपकी रचना ने तो भावुक कर दिया ..शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
बहुत मार्मिक!आगे और क्या कहूँ??
बहुत मार्मिक... बंधन शब्द को सार्थक करती लघु कथा हेतु हार्दिक बधाई ...बाहर के बंधन तो दिखाई देते हैं लेकिन जो आत्मिक बंधन होते हैं वो ??क्या उनको खोल सकते है ?
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