आज एक महीना होने को आया था और क़लम ऐसी जड़ हुई थी कि आगे बढ़ने का नाम ही ना लेतीI
ऐसा उसके साथ पहले भी कई बार हुआ था ,कि वो लिखने बैठता और पूरा पूरा दिन गुज़र जाने पर भी काग़ज़ कोरा रह जाता, लेकिन यहाँ बात कुछ और ही थी ,आज खयालात उसके साथ कोई खेल नहीं खेल रहे थे , वो जानता था कि उसे क्या लिखना है ,कहानी के सारे किरदार उसके ज़हन में मौजूद थे I
वो बूढी मज़लूम औरत , वो भोली सी कमसिन बच्ची , वो सफ्फ़ाक आँखों वाला बेरहम क़ातिल , सारे किरदार उसकी आँखों के सामने थे , लेकिन वो किरदार अभी तक बेनाम थे , बे मज़हब थे , वो बूढी औरत जो उसकी कहानी में बस दो लाइनों के बाद क़त्ल हो जाने वाली थी , उस सफ्फ़ाक आँखों वाले कातिल के साथ बैठी बड़े अजीब ढंग से मुस्कुरा रही थी , वो अपना नाम जानना चाहती थी , वो भोली कमसिन बच्ची जो उस क़त्ल की गवाह थी , वो जानना चाहती थी कि क़ातिल का मज़हब क्या है ताकि उस मज़हब से नफ़रत कर सके I
लेकिन वो अभी तक किरदारों को नाम नहीं दे पाया था , क्यूंकि वो इस क़त्ल का इलज़ाम किसी मज़हब पर नहीं डालना चाहता था , उसे तो बस उस क़ातिल के लिए एक नाम चाहिए था, लेकिन वो जानता था कि यहाँ हर मज़हब के अपने नाम और नामों के मज़हब होते हैं , वो सोचता रहा , सोचता रहा , लेकिन उस सफ्फ़ाक आँखों वाले क़ातिल को कोई नाम ना दे सका , और फिर आखिरकार गुस्से में आ कर उसने खून कर दिया अपने उस सफ्फ़ाक क़ातिल के किरदार का, उस बूढी औरत और कमसिन बच्ची ने रात भर जश्न मनाया उस किरदार की लाश पर , वो लाश जो अभी तक यूँ ही पड़ी थी , वो नहीं जानता था कि उस लाश का क्या करना है , उसे जलाना है या दफ़नाना है
'क्यूंकि वो नहीं जानता था कि क़ातिल का मज़हब क्या होता है '
-सालिम शेख
''मौलिक एवं अप्राकाशित ''
Comment
आदरणीय सौरभ सर , मेरे पास शब्द नहीं हैं आपका शुक्रिया अदा करने के लिए
आपकी हौसला हफ्ज़ाई से मुझे कितनी हिम्मत मिली मैं बयां नहीं कर सकता
मैं योगराज सर की 'लघुकथा की कक्षा' से सीखने की कोशिश कर रहा हूँ , गद्य में ये मेरी पहली कोशिश है , बस आप गुरुजनों के आशीर्वाद की ज़रूरत है ,सादर .
जनाब सालिम साहब रचना के भाव अच्छे हैं
एक संवेदनशील रचनाकार की अत्यंत भावुक प्रस्तुति केलिए हार्दिक बधाई.बहुत ही बढिया किस्साग़ोई हुई है.
भाई सालिम शेख, आपकी रचना लघुकथा नहीं है, अलबत्ता यह एक लघुकहानी अवश्य है. आपकी कलम में संभावनाएँ हैं. आप अपनी कोशिशें बदस्तूर जारी रखें.
इस मंच पर अगर आप हैं तो अपनी रचनाओं को शैल्पिक गठन देने का प्रयास कीजिये.
शुभेच्छाएँ
इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आदरणीय
बहुत उम्दा रचना , हर नाम से मज़हब जुड़ जाता है , हर सरनेम से जाति जुड़ जाती है । लेकिन क़ातिल तो सिर्फ और सिर्फ क़ातिल होता है , उसका कोई मज़हब , कोई जाति नहीं होती । बहुत बहुत बधाई क़ुबूल कीजिये इस शशक्त प्रस्तुति पर आदरणीय सालिम शेख साहब..
बहुत बढ़िया ,,सही है कातिल का कोई मजहब नही होता ,बधाई आपको आ.saalim sheikh जी |
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