For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ग़ज़ल -- ‘चलो अपनी सुनाते हैं’ (मिथिलेश वामनकर)

1222—1222—1222—1222

 

घरौंदें, आस में अक्सर यही जुमलें सुनाते हैं 

‘परिन्दें, शाम होती है तो घर को लौट आते हैं’

 

वों तपते जेठ सा तन्हां हमेशा छोड़ जाते हैं

मगर आँखों के सावन में भला क्यों लौट आते है

 

कभी जिनके उजालों से रहे हैं खून के रिश्तें

अंधेरों की कदमबोसी वो करने रोज़ जाते हैं

 

मुझे महसूस होती है तरसती मुन्तजिर आँखें

चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं

 

अजब हैं लोग सच कहने में भी नज़रें चुरा लेंगे

मगर जब झूठ कहना हो तो गंगाजल उठाते है

 

मयस्सर है नहीं यारों कफ़न के वास्ते कपड़ा

न जाने किस तरह से वो नए परचम बनाते हैं

 

न हंसने का इरादा है न रोने की यहाँ फुरसत

लगे है सब इसी जिद में ‘चलो अपनी सुनाते हैं’

 

इरादे आसमानी हो तो रस्ते खुल ही जायेंगे

परिन्दें ठान लेते है तो तिनके ढूंढ़ लाते हैं

 

अगर दिल में ठिकाना है, तो क़दमों को खबर कर दो

ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं

 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे

चलो तुमको हमारे गाँव के बरगद दिखाते हैं

 

 

-----------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------------

Views: 765

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 1:29pm

आदरणीय हर्ष जी, ग़ज़ल आपको पसंद आई, मेरा कहना सार्थक हुआ. ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 1:28pm

आदरणीय सुलभ जी, आप जैसे ग़ज़लगो से दाद पाना मेरे लिए मायने रखता है.  ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 1:27pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर जी, ग़ज़ल की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार. सादर 

Comment by Ravi Shukla on August 10, 2015 at 12:56pm

आरणीय मिथिलेश जी

सुन्‍दर ग़ज़ल के लिये दाद कुबूल कीजिये

दो दिन से ये बहर हमारे भी दिलो दिमाग में घूम रही थी आज इस पर आपके अशआर पढ़ के बहुत अच्‍छाा लगा

हमारे अशआर फिर कभी ।

ये अरकान है बहुत सुरीला इसीलिये आपकी ग़ज़ल को तनन्‍नुम में पढ़ा ।

एक शंका के समाधान के लिये विनम्र निवेदन है

मतले में और बाद के एक शेर में दोनो ही जगह परिन्‍दें को परीन्‍दे लिखा है ( क्‍या परिन्‍दे का वज्न 122 नहीं होगा गुनगनाने  में तो हमें फर्क नहीं लगा )

दोनो ही जगह परीन्‍दें होने से ये टंकण की त्रुटि तो नहीं होगी इसलिये आपसे जानने की इच्‍छा हुई है ।

अब आइये कुछ शेर पर बात हो जाए

मुझे महसूस होती है तरसती मुन्तजिर आँखें

चलो अब गाँव चलते है कि माँ को देख आते हैं .... भाव पूर्ण शेर जो किसी मजबूरी में मॉं से दूर होगा उसकी आंख नम कर देगा बधाई मिथिलेश जी

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे

चलो तुमको हमारे गाँव के बरगद दिखाते हैं.....    बुजुर्गो के मान सम्‍मान को रेखाकिंत करता शेर बूढा बरगद खुद घूप में खडा रहकर कितनों को अपनी छांव में आराम देता है । उनकी तनहाई को स्‍वर दिया है आपने बहुत खूब ।

खूब सूरत ग़ज़ल के लिये आपका शुक्रिया

Comment by Sushil Sarna on August 10, 2015 at 12:51pm

इरादे आसमानी हो तो रस्ते खुल ही जायेंगे
परींदे ठान लेते है तो तिनके ढूंढ़ लाते हैं

क्या बात है आदरणीय बहुत ही खूबसूरत अशआर कहे हैं आपने .... परिंदे ठान लेते हैं तो तिनका ढूंढ लाते हैं … नमन सर नमन आपकी कलम,कलाम और शे'रो-शान को .... हार्दिक बधाई से _/\_

Comment by Harash Mahajan on August 10, 2015 at 12:49pm

आ० मिथिलेश वामनकर जी नमस्कार ...हर शेर में गहराई का असर साफ़ दिखता है सर....हर शेर पर ढेरों दाद ..किस किस पर हाथ रखें...

"गंगाजल " लूं??

"अपनी सुनाते हैं " लूं  या फिर  "बरगद"...कहाँ तक अहसास को दिखा दिया .....अंदर तक असर कर गए ..
मद्दम पीड़ा को बढ़ाते हुए असीम "बरगद" पर वाह बहुटी खूब !!

ढेरों दाद सर ...ढेरों दाद !!

साभार !!!!

Comment by Sulabh Agnihotri on August 10, 2015 at 11:37am

बहुत सुन्दर गजल हुयी है वामनकर जी। ये शेर तो लाजवाब हैं। बधाई स्वीकार करें।

अगर दिल में ठिकाना है, तो क़दमों को खबर कर दो

ये मंदिर और मस्जिद की तरफ ही दौड़ जाते हैं

 

जो तनहाई बुजुर्गों की अगर अब भी नहीं समझे

चलो तुमको हमारे गाँव के बरगद दिखाते हैं

 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 10, 2015 at 10:52am

आ० मिथिलेश भाई , इस बोलती ग़ज़ल के लिए कोटि कोटि हार्दिक  बधाई l

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Tuesday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service