2222 2222 2222 222
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माना केवल रात ढली है हमको उनका दीद हुए दर्शन
पर लगता है सदियाँ गुजरी अपने घर में ईद हुए /1
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हमने तो कोशिश की वो भी हमसे जुड़ते यार मगर
रिश्तों के पुल बरसों पहले उनसे ही तरदीद हुए /2 रद्द करना / तोडना
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भीड़ जुटाई नाम से अपने पर उनका ही रंग जमा
हर महफिल में हम ऐसे ही सौ सौ बार जरीद हुए /3 तन्हा/अकेले
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जाने कैसा आब था रूख पे हर फनकारी व्यर्थ गई
करने निकले थे उस्तादी लेकिन यार मुरीद हुए /४ शिष्य
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मत इठला तू नगरों पर यूँ आकर ये भी देख जरा
सुविधाओं से वंचित कितने गाँव यहाँ तकरीद हुए /5 निर्जन / उजाड़
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पापों की हद जब भी होगी और कयामत आएगी
जन्मों बीते यार ’मुसाफिर’ इसकी भी तकीद हुए /6 चेतावनी
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आशावादी हम तुम दोनों हाथ पे फिर क्यों हाथ धरें
चल उम्मीदें बेच के आएं उनको नाउम्मीद हुए /7
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रचना मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ० भाई सूबे सिंग जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद l
आ० भाई गोपाल नारायण जी , बदलाव का अनुमोदन करने के लिए हार्दिक आभार l
चल उम्मीदें बेन्चे उनको जो भी ना उम्मीद हुए ----- अब बात कुछ बनी . बढ़िया गजल . उम्दा काबिले तारीफ .
आदरणीय भाई गिरिराज जी, गजल पर उपस्थिति दे उत्साहवर्धन और स्नेह के लिए आभार । आपने सही कहा अंतिम मिसरे में बात सही ठंग से कह नहीं पाया था । ऐसा ही मुझे भी लग रहा था पर बात बनाए नहीं बन रही थी । लेकिन आपकी प्रतिक्रिया पढ़ने के बाद स्वतः ही बात बन गयी । अब आपको भी अवश्य लगेगा कि बात कहने में सफल रहा । मार्गदर्शन करते रहिए । सादर......
आशावादी हम तुम दोनों हाथ पे फिर क्यों हाथ धरें
चल उम्मीदें बेचें उनको जो भी नाउम्मीद हुए /
आदरणीय भाई सुलभ जी, गजल की प्रशंसा कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आदरणीय भाई सुनील जी, हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई मनोज जी, उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ0 प्रतिभा बहन, गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय भाई मिथिलेश जी, उपस्थिति और स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
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