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नई ताब दे नई सोच दे जो पुरानी है वो निकाल दे
रहे रौशनी बड़ी देर तक वो दिया तू अब यहाँ बाल दे
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है तमस भरी कि हवस भरी नहीं कट रही ये जो रात है
तू ही चाँद है तू ही सूर्य भी मेरी रात अब तो उजाल दे
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जो नहीं रहे वो तो फूल थे ये जो बच रहे वो तो खार हैं
मेरे पाँव भी हुए नग्न हैं मेरी राह अब तू बुहार दे
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न तो पीर दे न चुभन ही दे मेरे पाँव में ये जो फाँस है
नहीं मिल रही कहाँ गुम हुई तुझे है पता तू निकाल दे
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कभी मयकशी में हूँ डूबता कभी आरती तेरी कर रहा
मेरा इश्क भी कोई इश्क है न खुश करे न मलाल दे
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मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
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******यह गजल मूलतः "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-58 के लिए लिखी थी किंतु किसी
कारणवश उसमें शामिल न हो सका । प्रबु़़द्ध जनों से आग्रह है कि इसमें
निहित कमियों से अवगत कराएं और सुझाव दें ।
Comment
अच्छा प्रयास है आ. लक्ष्मण जी, दाद कुबूल कीजिए
आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल बहुत अच्छी कही है , एक शे र में काफिया दोष है जिसे आ. कबीर भाई बता चुके हैं , देख लीजियेगा ॥ आपको गज़ल के लिये बधाइयाँ ॥
खूबसूरत ग़ज़ल कही है ..बधाई आपको
आदरणीय धामी सर!
कभी मयकशी में हूँ डूबता कभी आरती तेरी कर रहा
मेरा इश्क भी कोई इश्क है न खुश करे न मलाल दे वाह! कमाल कि गिरह लगाई है सर! क्या कहने!
इस शेर के अलावा और कोई शेर प्रभावित नही करते! आ० धामी सर आपके स्तर की रचना नही हो पाई है!
शायद व्यस्तता का परिणाम हो!
अच्छा प्रयास है ..बधाई..आ. समर साहब की बात से सहमत हूँ आल के साथ आर काफ़िया दोषपूर्ण है
सादर
कभी मयकशी में हूँ डूबता कभी आरती तेरी कर रहा
मेरा इश्क भी कोई इश्क है न खुश करे न मलाल दे
खूब सुन्दर ग़ज़ल
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