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जाहिल आक़िल को तस्लीम नहीं करते
करते करते उनसे लड़ाई थक गया मैं
मैंने सबसे मिलना जुलना छोड़ दिया
दरवाज़े पर लिख दो भाई थक गया मैं
दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीय समर भाई.
ग़ज़ल इस दफ़े निखर के क्या आयी है, हर शेर पर मन खुश रहा है. वाकई सद्यः स्नाता की तरह मोह लिया है इसने ! :-))
आदरणीय, मक्ते से निस्सृत मुहब्बतों केलिए दिल से आभारी हूँ.
वैसे, आपसी रूहानी तनाफ़ुर को समझते हुए भी कुछ आलिम सानी में भी तनाफ़ुर देखें.. ;-)
लेकिन रदीफ़ का कमाल तो है न - थक गया मैं ! ...
हा हा हा...
इस अच्छी ग़ज़ल केलिए दिल से आदाब..
सादर
आदरणीय समर कबीर साहब । अादाब बहुत ही उम्दा अशआर हुए है । आपकी ग़ज़ल पढ़ कर उन लोगो की बेबसी और मजबूरियों को भी जुबां मिल गई जो कुछ कह नहीं पाये ।अदबी लिहाज से ग़ज़ल के लिये दिली दाद पेश करके हमें खुशी होगी और शेर शेर दिली दाद हाजिर भी है लेकिन इस ग़ज़ल को पढ कर एक पीड़ा का अहसास भी हो रहा है उसको अभिव्यक्त करने लिये हमारे पास शब्द नहीं है । आभार ।
नहीं आदरणीय समर साहब, ग़ज़ल को डिलीट कत्तई न करें. ये ग़ज़ल दिल की गहराइयों के नितांत अपने-से हुबाबों को शब्द देती हुई-सी है. ऐसी प्रस्तुतियाँ सहज ही नहीं हो जातीं.
अलबत्ता, उन अश’आर को आप सँवार दें. आप स्वयं सक्षम हैं.
इस ग़ज़ल पर पुनः दिल से दाद कह रहा हूं.
सादर
आदरणीय समर भाई , हमेशा की तरह बहुत सुनदर ग़ज़ल कही है आपने , दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।
आदरणीय समर कबीर साहब, थक गया मैं जैसे रदीफ़ को लेकर ऊब, झल्लाहट और ज़ाती सचबयानी को खूब स्वर मिले हैं. हार्दिक बधाइयाँ.
आपने निम्नलिखित शेरों में ’न’ का प्रयोग किया है और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि इन्हें और ढंग से निभाना था.
मेरे घर में पाँव रखा न ख़ुशियों ने
बजा बजा कर ये शहनाई थक गया मैं
उपर्युक्त शेर में बलात ’ना’ का उच्चारण हो रहा है,
इस शेर में ’न’ साँचे से बाहर प्रतीत हो रहा है.
मेरे दरवाज़े पर दस्तक कोई न दे
तख़्ती पर ये लिख दो भाई थक गया मैं
या यह मेरी समझ का दोष है ? बताइयेगा.
सादर
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