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तो क्या ? (लघुकथा) शिक्षक दिवस पर विशेष

"बहू, पेपर पढ़ा आज का ? एक तरफ द्रोणाचार्य पुरस्कार पाने वाले शिक्षकों के बारे में लिखा है ,वहीँ दूसरी तरफ एक दूसरे गुरूजी  की महिमा मंडिता है I ये महाशय अपने शिष्यों से दूसरों  के खेतों से सब्जी और भुट्टे  चोरी  करवा के मंगवाते हैं " दादाजी भुनभुना रहे थे I

"ये तो कुछ भी नहीं है बाबूजी Iआजकल के टीचर्स के बारे में कितनी बातें पढने में आती हैं ,जिन्हें पढ़कर सिर शर्म से झुक जाता है "बहू ने अपना ज्ञान जोड़ा I

"तो क्या हो गया दादाजी ?"  ये 17..18 वर्ष का पोता थाI

"क्या हो गया i i  इतनी उत्कृष्ट गुरु शिष्य परंपरा का हमारा इतिहास ,  और  आज के गुरूओं का ये पतन ..,और तू कह रहा है 'क्या हो गया ' "अब दादाजी उत्तेजित होने लगे थे I

"हाँ दादाजी , तो क्या हो गया ? सब्जी भुट्टे ही तो मंगवाए अपने शिष्यों से ,कोई अंगूठा तो नहीं मांग लिया"I

मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by pratibha pande on September 7, 2015 at 11:22am

आदरणीय कांता रॉय जी , गुरु शिष्य परंपरा पर आपके विचारों से मै  पूर्णतया सहमत हूँ और आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी की गुरु और शिक्षक  की विवेचना से भी , सच है एक गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है , पर एक शिक्षक  में  मानवीय गुण अवगुण स्वाभाविक है

गुरु द्रोंण एक शिक्षक ही थे I आपने कथा पर आकर और अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा मान बढ़ाया Iआपका ह्रदय से आभार ,सादर 

Comment by kanta roy on September 6, 2015 at 9:25pm
गुरू - शिष्य परम्परा एक सहृदयता का रिश्ता । पिता रूपी गुरू और संतान सा आल्हादित शिष्य , यही है मर्म है इस रिश्ते का । हम सदा द्रोणाचार्य - एकलव्य प्रसंग को याद करते है और गुरू - शिष्य परम्परा को कठघरे में लाकर खड़े कर देते है , लेकिन हम  राम-विश्वामित्र, कृष्ण-संदीपनी, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस को क्यों भूल जाते है जिन्होंने शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा का निर्वाह किया है। 
इन सभी शिष्यों ने अपनों गुरूओं के सानिध्य में पाये शिक्षा से ही अपने लिये सफल और सार्थक कर्म करते हुए आदर्श कायम किये ।
डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी ऐसे शिक्षक हुए कि उनके शिष्यों के आल्हाद के कारण आज उनका जन्मदिवस " शिक्षक दिवस " के रूप में मनाया जाता है ।
कुछ अपवाद के कारण रिश्ते कभी धूमिल नहीं हुआ करते हैै ।

अच्छे अध्यापन के साथ-साथ शिक्षक का अपने छात्रों से व्यवहार व स्नेह उसे योग्य शिक्षक बनाता है। मात्र शिक्षक होने से कोई योग्य नहीं हो जाता बल्कि यह गुण उसे अर्जित करना होता है इसलिए छात्र का भी बुद्धिमान और विनम्र होना उतना ही जरूरी है जितना की शिक्षक का छात्र के प्रति उदार होना ।

आप बेहतरीन कथाकारा है आदरणीया प्रतिभा जी इस रचना पर इतने बातों को कहने के लिए विवश करना ही इसके सफलता की सीमा है । बधाई स्वीकार करें इस सार्थक रचनाकर्म के लिए । सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 6:38pm

आदरणीया, मुझे और आश्वस्ति होती, यदि आप मेरे कहे को समझ कर प्रत्युत्तर देतीं.   संभवतः मैं ही पंक्तियों के माध्यम से संप्रेषणीय नहीं हो पाया हूँ. माकूल अवसर के अनुसार पुनः आने का प्रयास करूँगा. 

बहरहाल पुनः बधाइयाँ.

सादर

 

Comment by pratibha pande on September 6, 2015 at 5:50pm

गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोंण का अंगूठा मांगना अवश्य जन श्रुति होगी ,पर वो एक पक्षपाती गुरु /शिक्षक  तो थे ही ,जो अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के समकक्ष किसी को नहीं देख पाते थे I कथा का पोता  आज के शिक्षक और द्रोंण की तुलना नहीं कर रहा  ,बल्कि द्रोंण जैसे शिक्षक की महिमा मंडिता  के खिलाफ है I आज के शिक्षक का कृत्य तो अशोभनीय है ही और  उसकी तो भर्त्सना भी हो  रही है I रचना पर विवेचनात्मक टिपण्णी के लिए आपका ह्रदय से आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2015 at 3:53pm

भाव-दशा से प्रभावित और अचंभित करती यह लघुकथा वस्तुतः तार्किकता की कसौटी पर लसर जाती है, आदरणीया प्रतिभाजी. 

दोनों तरह के ’शिक्षकों’ के व्यवहार और कृत्य का अंतर स्पष्ट होता तो संभवतः यह दोष लघुकथा में उत्पन्न नहीं होता. दक्षिणा शब्द के सापेक्ष यदि कोई बात प्रमाणित करने का आग्रह है, तो उस विन्दु पर भी यह कथा तार्किक नहीं हो पाती, कि, द्रोण ने दक्षिणा कह कर एकलव्य का अँगूठा नहीं मांगा था, जैसी कि जनश्रुति है. 

’गुरु’ तथा ’शिक्षक’ के अन्तर को स्पष्ट किया जाना उचित है. द्रोण वास्तव में ’गुरु’ नहीं ’शिक्षक’ ही थे. क्योंकि वे शिष्यों के योगक्षेम से गुरुओं की तरह नहीं बँधे थे. 

बहरहाल, लघुकथा के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by TEJ VEER SINGH on September 6, 2015 at 9:27am

हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा पांडे जी,तो क्या हो गया,कोई अंगूठा तो नहीं मांग लिया!क्या उदाहरण दिया पोते ने!शानदार प्रस्तुति!

Comment by Archana Tripathi on September 6, 2015 at 12:28am
दूसरे शब्दों में यह स्पष्ट हो गया हैं की गुरु हमेशा से गुरुदक्षिणा मांगते रहे हैं आज ये कोई नई बात नहीं हैं।और इस मुकाबले तो आज के गुरु ही सही सब्जी ही मंगाते हैं ।
बहुत ही उत्कृष्ट लघुकथा हैं हार्दिक बधाई आपको आदरणीय प्रतिभा पाण्डेय जी ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 5, 2015 at 8:36pm

हमेशा की तरह एक शानदार लघुकथा आदरणीया प्रतिभा जी, आज शिक्षक दिवस पर ऐसी गंभीर प्रस्तुति मुग्ध कर रही है और झटका भी दे रही है. आपको दिल से बधाई ... ढेर सारी ....

Comment by Sushil Sarna on September 5, 2015 at 7:54pm

प्रस्तुत लघु कथा में जिस प्रकार के तथ्य को तीक्ष्ण कटाक्ष के माध्यम से आपने  मर्म को उकेरा है , बहुत प्रशंसनीय है। हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया प्रतिभा जी। 

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on September 5, 2015 at 7:47pm

अभाव से त्राण दिलाने वालों का मोह गुरु द्रोण से वह कर्म करवाता है जो नहीं होना चाहिए था. जहाँ तक दक्षिणा का प्रश्न है, द्रोण को इसका अधिकार नहीं था, क्योंकि एकलव्य उनका जाहिर शिष्य नहीं था, ना उनके गुरुकुल का सदस्य था. यह संभव है, द्रोण ने अपनी विवशता रखी और एकलव्य ने गुरु को अपमान से बचाने के लिए स्वयं अंगूठा दान कर दिया. " मानस पुत्रों की रक्षा, गुरु का सदा कर्म" फिर अंगूठा की दक्षिणा संभव नहीं जान पड़ती. लेकिन यह कथा तो चल ही रही है.

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