"बहू, पेपर पढ़ा आज का ? एक तरफ द्रोणाचार्य पुरस्कार पाने वाले शिक्षकों के बारे में लिखा है ,वहीँ दूसरी तरफ एक दूसरे गुरूजी की महिमा मंडिता है I ये महाशय अपने शिष्यों से दूसरों के खेतों से सब्जी और भुट्टे चोरी करवा के मंगवाते हैं " दादाजी भुनभुना रहे थे I
"ये तो कुछ भी नहीं है बाबूजी Iआजकल के टीचर्स के बारे में कितनी बातें पढने में आती हैं ,जिन्हें पढ़कर सिर शर्म से झुक जाता है "बहू ने अपना ज्ञान जोड़ा I
"तो क्या हो गया दादाजी ?" ये 17..18 वर्ष का पोता थाI
"क्या हो गया i i इतनी उत्कृष्ट गुरु शिष्य परंपरा का हमारा इतिहास , और आज के गुरूओं का ये पतन ..,और तू कह रहा है 'क्या हो गया ' "अब दादाजी उत्तेजित होने लगे थे I
"हाँ दादाजी , तो क्या हो गया ? सब्जी भुट्टे ही तो मंगवाए अपने शिष्यों से ,कोई अंगूठा तो नहीं मांग लिया"I
मौलिक व् अप्रकाशित
Comment
आदरणीय कांता रॉय जी , गुरु शिष्य परंपरा पर आपके विचारों से मै पूर्णतया सहमत हूँ और आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी की गुरु और शिक्षक की विवेचना से भी , सच है एक गुरु का स्थान गोविन्द से भी ऊँचा है , पर एक शिक्षक में मानवीय गुण अवगुण स्वाभाविक है
गुरु द्रोंण एक शिक्षक ही थे I आपने कथा पर आकर और अपनी प्रतिक्रिया देकर मेरा मान बढ़ाया Iआपका ह्रदय से आभार ,सादर
आदरणीया, मुझे और आश्वस्ति होती, यदि आप मेरे कहे को समझ कर प्रत्युत्तर देतीं. संभवतः मैं ही पंक्तियों के माध्यम से संप्रेषणीय नहीं हो पाया हूँ. माकूल अवसर के अनुसार पुनः आने का प्रयास करूँगा.
बहरहाल पुनः बधाइयाँ.
सादर
गुरु दक्षिणा के रूप में द्रोंण का अंगूठा मांगना अवश्य जन श्रुति होगी ,पर वो एक पक्षपाती गुरु /शिक्षक तो थे ही ,जो अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के समकक्ष किसी को नहीं देख पाते थे I कथा का पोता आज के शिक्षक और द्रोंण की तुलना नहीं कर रहा ,बल्कि द्रोंण जैसे शिक्षक की महिमा मंडिता के खिलाफ है I आज के शिक्षक का कृत्य तो अशोभनीय है ही और उसकी तो भर्त्सना भी हो रही है I रचना पर विवेचनात्मक टिपण्णी के लिए आपका ह्रदय से आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी
भाव-दशा से प्रभावित और अचंभित करती यह लघुकथा वस्तुतः तार्किकता की कसौटी पर लसर जाती है, आदरणीया प्रतिभाजी.
दोनों तरह के ’शिक्षकों’ के व्यवहार और कृत्य का अंतर स्पष्ट होता तो संभवतः यह दोष लघुकथा में उत्पन्न नहीं होता. दक्षिणा शब्द के सापेक्ष यदि कोई बात प्रमाणित करने का आग्रह है, तो उस विन्दु पर भी यह कथा तार्किक नहीं हो पाती, कि, द्रोण ने दक्षिणा कह कर एकलव्य का अँगूठा नहीं मांगा था, जैसी कि जनश्रुति है.
’गुरु’ तथा ’शिक्षक’ के अन्तर को स्पष्ट किया जाना उचित है. द्रोण वास्तव में ’गुरु’ नहीं ’शिक्षक’ ही थे. क्योंकि वे शिष्यों के योगक्षेम से गुरुओं की तरह नहीं बँधे थे.
बहरहाल, लघुकथा के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा पांडे जी,तो क्या हो गया,कोई अंगूठा तो नहीं मांग लिया!क्या उदाहरण दिया पोते ने!शानदार प्रस्तुति!
हमेशा की तरह एक शानदार लघुकथा आदरणीया प्रतिभा जी, आज शिक्षक दिवस पर ऐसी गंभीर प्रस्तुति मुग्ध कर रही है और झटका भी दे रही है. आपको दिल से बधाई ... ढेर सारी ....
प्रस्तुत लघु कथा में जिस प्रकार के तथ्य को तीक्ष्ण कटाक्ष के माध्यम से आपने मर्म को उकेरा है , बहुत प्रशंसनीय है। हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीया प्रतिभा जी।
अभाव से त्राण दिलाने वालों का मोह गुरु द्रोण से वह कर्म करवाता है जो नहीं होना चाहिए था. जहाँ तक दक्षिणा का प्रश्न है, द्रोण को इसका अधिकार नहीं था, क्योंकि एकलव्य उनका जाहिर शिष्य नहीं था, ना उनके गुरुकुल का सदस्य था. यह संभव है, द्रोण ने अपनी विवशता रखी और एकलव्य ने गुरु को अपमान से बचाने के लिए स्वयं अंगूठा दान कर दिया. " मानस पुत्रों की रक्षा, गुरु का सदा कर्म" फिर अंगूठा की दक्षिणा संभव नहीं जान पड़ती. लेकिन यह कथा तो चल ही रही है.
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