अतिशय उत्साह
चाहे जिस तौर पर हो
परपीड़क ही हुआ करता है
आक्रामक भी.
व्यावहारिक उच्छृंखलता वायव्य सिद्धांतों का प्रतिफल है
यही उसकी उपलब्धि है
जड़हीनों को साथ लेना उसकी विवशता
और उनके ही हाथों मुहरा बन जाना उसकी नियति
मुँह उठाये, फिर, भारी-भरकम शब्दों में अण्ड-बण्ड बकता हुआ
अपने वायव्य सिद्धांतो को बचाये रखने को वो
इस-उस, जिस-तिस से उलझता फिरता है.
भाव और रूप.. असंपृक्त इकाइयाँ हैं
तभी तक, लेकिन, सहिष्णुता के प्रमाद में
’ब्राह्मणवाद’ का मुखौटा न धार लें
जो सोच और स्वरूप में डिस्क्रिमिनेशन को हवा देता है
स्वयं को ’श्रेष्ठ’ समझने और समझवाने का कुचक्र चलता हुआ
अपनी प्रकृति के अनुसार ही !
फिर निकल पड़ता है हावी होने
अपने नये रूप और नयी चमक के साथ
पूरे उत्साह में !
’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है
अतिशय उत्साह में..
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-सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय भुवन निस्तेज जी, आपने प्रस्तुति को समय दिया और अपनी भावनाओं से उपकृत किया इस हेतु हार्दिक धन्यवाद ..
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,
'ब्राह्मणवाद' और उसके नए रूप-विरूप की व्याख्या-विश्लेषण करती इस नई रचना के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
आदरणीय Saurabh Pandey जी आजकल के संदर्भ में एक दम सही उतरती है सर | कितना सच कहा है सर "’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है "....
और आज की राजनीति भी तो यही है ....जड़हीन ज्यादा है कर्म करने वाले कम हैं.....सिर्फ स्वार्थ के लिए.!!
दिल को झकझोरती हुई सुंदर शब्दों से सुसज्जित पेशकश के लिए बहुत बहुत धन्यवाद सर !! सादर !
ब्राह्मणवाद पर सारगर्भित रचना हुई है | अतिशय उस्ताह तो हर वाद में विवाद का रूप ले ही लेता है | और फिर तर्क कुतर्क शुरू हो जाते है | समय के साथ साथ -"’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है | जड़हीनों को साथ लेना उसकी विवशता | - इन सब के मूल में दूषित और स्वार्थ परक राजनीति है जो लार्ड मेकाले से लेकर आज तक होती रही है | विस्तृत चर्चा तो श्री मिथलेश वान्मकर जी और आपके जवाब मे निहित है | ये गहन अध्यन का विषय है | " अब तो सभी वर्ग, जातिवाद में कई तरह के भेद भाव और उंच नीच की विवाद देखने सुनने को मिलता है | आपकी इस चिंतन परक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई जिसे समझने के लिए समय देना होगा | सादर
’ब्राह्मणवाद’ हर युग में सुविधानुसार अपनी केंचुल उतारता है
आजकल ’पद-दलितों और पीड़ितों’ की बातें करता है
अतिशय उत्साह में.. धन्यवाद
आदरणीय अन्तःस्करण कोझाक्झोरती यह कविता अनुपम है. बधाई स्वीकार करें...
आदरणीय टीआर शुकुलजी, आपकी सदाशयता और प्रस्तुत रचना पर आपके अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद
सादर
आदरणीय विजय शंकरजी, प्रस्तुति पर प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद
अदरणीय मिथिलेशभाईजी, आपकी विशद टिप्पणी से प्रस्तुत रचना के कई तार सुलझते हुए बँधते गये हैं. आपने जिस तरह से इस रचना का मर्म छुआ और महसूस किया है वह आह्लादित करता है. आपकी संवेदनशीलता उत्साहित रखती है. हार्दिक धन्यवाद भाई.
वस्तुतः ’ब्राह्मणवाद एक विचार है जो ’स्व’ के आगे अक्सर नहीं देखता. इस हेतु घनघोर आग्रही भी होता है. यदि किसी ने तार्किक होने या व्यापकता के प्रति संवेदनशील होने की सलाह दी नहीं, कि, झट उसका माखौल उड़ाता हुआ उसे अस्पृश्य घोषित कर देता है.
आप ब्राह्मणत्व से अर्जित तत्त्वबोध को एक ओर कर सामान्य ब्राह्मणवादियों को देखिये आपका मन जुगुप्सा से भर जायेगा.
यह अवश्य है कि आजकी तारीख में जातिनामों या उपनामों से ब्राह्मणों की पहचान करना या तो शातिरपना है या मूर्खता. क्योंकि शातिर नव-ब्राह्मणवादी यही करते हैं. जो इसे नहीं समझते वे उपनामों ता जातिनामों के चक्कर में पड़े रहते हैं.
प्रस्तुति को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ पांडे जी , "वाद" कोई भी हो अन्त में " विवाद " ही उत्पन्न करता है। निर्विवाद वही रह पाता है जो तार्किक, वैज्ञानिक और विवेकपूर्ण होता है। यह रचना समाज में व्याप्त राजनैतिक आडम्बर और स्वार्थ की जड़ों को हिला डालने की ओर इशारा करती है। बहुत सुन्दर।
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