हिन्दी का अखबार – ( लघुकथा ) -
"रणजीत , तुम्हारे घर के फ़ाटक में यह हिन्दी का अखबार लगा हुआ था, कौन पढता है तुम्हारे घर में "!
"पहले बाबूजी पढा करते थे पर अब कोई नहीं पढता"!
"अंकल को गुजरे हुए तो सात साल हो गये , फ़िर क्यों मंगाते हो"!
" बाबूजी के स्वर्गवास के बाद, मम्मीजी की इच्छा थी कि यह अखबार उनके जीते जी आता रहे!मम्मीजी रोज़ सुबह हिन्दी का अखबार, बाबूजी का चश्मा, बाबूजी की चाय उनके कमरे में रख आती थी!उन्हें इससे बडा सकून मिलता था"!
"पर अब तो आंटीजी भी नहीं रही"!
"हॉ दीपक, अब तो मम्मीजी भी चली गयी"!
"फ़िर क्यों मंगा रहे हो यह हिन्दी का अखबार"!
"अब वह सब मैं करता हूं जो मम्मी करती थीं, बडा सकून मिलता है, ऐसा आभास होता है जैसे मॉ बाबूजी आसपास हों और मुझे आशीर्वाद दे रहे हों”!
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय श्री सुनील जी, राजेश कुमारी जी, शशि बंसल जी, आपने लघुकथा को अपना अमूल्य समय दिया, प्रशंसा की,सार्थक टिप्पणी की!पुनः आभार!
दिल छू लेने वाली लघु कथा बहुत ही सुन्दर हार्दिक बधाई आपको आ० तेजवीर सिंह जी
हार्दिक आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा "जान"गोरखपुरी जी!आपको लघुकथा अच्छी लगी!शुक्रिया!
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , मिथिलेश वामनकर जी!लघुकथा को समय देने, सराहने हेतु!
बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है आदरणीय तेजवीर जी ... हार्दिक बधाई
बड़ी ही ऊहात्मक रचना है क्या अभी सचमुच हमारे अन्दर इतनी संवेदना जीवित है यदि है तो उसे प्रणाम .
हार्दिक आभार आदरणीय कांता रॉय जी!लघुकथा को समय दिया, सराहा,मेरा उत्साह वर्धन किया!शुक्रिया!
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