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ग़ज़ल -- आईना बना ले मुझको .... दिनेश कुमार

2122-1122-1122-22

अहले महफ़िल की निग़ाहों से छुपा ले मुझको
मैं तेरा ख़्वाब हूँ आँखों में बसा ले मुझको

अपनी मंज़िल पे यकीनन मैं पहुंच जाऊँगा
कोई बस राहनुमाओं से बचा ले मुझको

रात कटती है न अब दिन ही मेरा तेरे बग़ैर
मेरी आवारगी नेजे पे उछाले मुझको

सबके दुखदर्द में जब मैंने मसीहाई की
इस ग़मे जाँ में कोई क्यूँ न सँभाले मुझको

शख़्सियत तेरी सँवारूंगा ये वादा है मिरा
अपनी तक़दीर का आईना बना ले मुझको

दिल के दरिया में ख़जाना है मुहब्बत का निहाँ
चश्म-ए-हसरत से कहो, ख़ूब खँगाले मुझको

आबजू होंठों पे है, अब्र का मैं लश्कर हूँ
कर दो बेशक ग़म-ए-सहरा के हवाले मुझको

ग़म की शिद्दत ने अँधेरों की थी रह दिखलाई
आज बेगाने से लगते हैं उजाले मुझको

ख़्वाहिशें जिस्म की पूरी ही नहीं होती 'दिनेश'
क़ैद-ए-हस्ती से कोई अब तो निकाले मुझको

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 20, 2015 at 10:20pm

आदरणीय दिनेश जी, अच्छी ग़ज़ल हुई है, दाद कुबूल करें

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 17, 2015 at 1:20pm

आ० मिथिलेश जी ने मेरे मन की बात कह दी . बहुत खूब कहा आपने .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 17, 2015 at 4:19am
कमाल की ग़ज़ल हुई है दिनेश भाई जी। इस शानदार ग़ज़ल पर दाद ही दाद।
Comment by Samar kabeer on September 16, 2015 at 11:18pm
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब,वाह,बहुत ख़ूब,शानदार,ये देख कर प्रसन्नता हुई कि आपकी ग़ज़ल दिन ब दिन निखरती जा रही है , शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by shree suneel on September 16, 2015 at 9:13pm
आदरणीय दिनेश कुमार जी, तहे दिल से बधाई आपको इस ख़ूबसूरत, उम्दा ग़ज़ल के लिए.
दिल के दरिया में ख़जाना है मुहब्बत का निहाँ
चश्म-ए-हसरत से कहो, ख़ूब खँगाले मुझको.. बहुत ख़ूब.
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 16, 2015 at 4:45pm

दिल के दरिया में ख़जाना है मुहब्बत का निहाँ
चश्म-ए-हसरत से कहो, ख़ूब खँगाले मुझको

ग़म की शिद्दत ने अँधेरों की थी रह दिखलाई
आज बेगाने से लगते हैं उजाले मुझको

ख़्वाहिशें जिस्म की पूरी ही नहीं होती 'दिनेश'
क़ैद-ए-हस्ती से कोई अब तो निकाले मुझको

आहा हा हा! लाजव़ाब!लाजवाब! ढ़ेरों दाद पेश है आदरणीय दिनेश सर पूरी गज़ल बेहतरीन हुयी है!मजा आ गया पढ़कर!

Comment by मनोज अहसास on September 16, 2015 at 3:22pm
बहुत खूब सर

ये ग़ज़ल पूज्य जगजीत सिंह जी द्वारा गाई गई इस ग़ज़ल पर बहुतखूबसूर्ती से गाई जासकती है


अपने हाथों की लकीरो में छुपा ले मुझको
मैं हु तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझको


इस खूबसूरत ग़ज़ल पर आपको बहुत बहुत बधाई
हर शेर कमाल
सादर
Comment by Ravi Shukla on September 16, 2015 at 2:50pm

आरणीय दिनेश जी बहुत खूब ग़ज़ल कही है सुन्‍दर अश्‍आर हुए है बधाई कुबूल करें ।

Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 16, 2015 at 10:58am
हर शेर बढ़िया

बधाई
Comment by Rahul Dangi Panchal on September 16, 2015 at 9:45am
बहुत सुन्दर गजल हुई आदरणीय

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