For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

गाँव-घर मुझको बुलाते हैं (ग़ज़ल)

1222  1222  1222  1222

छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..

किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..

-

न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,

न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..

-

फ़िदा इन ही अदाओं पर हुऐ थे हम कभी यारों,

ज़रा सी बात पे वो रूठ कर फिर मान जाते हैं..

-

नज़र की बात थी,पर वो कभी भी बूझ ना पाये,

ज़रा, हम हाल दिल का बोलने में हिचकिचाते हैं..

-

भटक के इस शहर में,उब गया है मन मेरा अब तो,

कभी जो छोड़ आया, गाँव-घर मुझको बुलाते हैं..

(मौलिक व अप्रकाशित)

~

~

जयनित कुमार वर्मा

अररिया,बिहार

Views: 563

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 21, 2015 at 12:29pm

आदरणीय जयनित भाई , गज़ल अच्छी कही है , दिली बधाइयाँ आपको । नीचे कुछ सलाहें आयीं हैं , खयाल कीजियेगा । 
मतले के विषय मे आ. मनोज भाई जी से सहामत हूँ -- उला मे आपने तभी शब्द का उपयोग किया है तो सानी मे जब , जब ही ऐसा कुछ कहने से बात पूरी होती । जैसे --- हम तभी जाते हैं - जब बुलाते हैं । मुझे भी आपका मतला अधूरा लगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 21, 2015 at 12:11pm

अच्छा मतला  हुआ -----क्यूं को क्यूँ करलें 

न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,

न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..----शेर बहुत सुन्दर है बस तकाबुले रदीफ़ दोष से फ़ारिग कर लीजिये 

भटक के इस शहर में,उब गया है मन मेरा अब तो,--ऊब को उब नहीं लिख सकते 

थोड़े संशोधन पश्चात् ग़ज़ल निखर उठेगी शुभकामनायें 

-


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 20, 2015 at 8:19pm

आदरणीय जयनित जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है बधाई 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 19, 2015 at 7:24pm

सुन्दर प्रयास हुआ है भाई जयनित जी बधाई!शुभकामनायें!

Comment by Samar kabeer on September 18, 2015 at 11:45pm
जनाब जयनित कुमार जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by मनोज अहसास on September 18, 2015 at 4:17pm
छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..
किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..

दोनों मिसरों में आपने सवाल ही पूछ लिए है आदरणीय
मेरे विचार से शेर में बात पूरी नहीं हो पाई
उला की बात का जवाब सानी में निपट जाना चाहिए
बाकि मैं भी सीख रहा हूँ इस बात को गुणीजन बता पायेगे


सादर
Comment by Shyam Narain Verma on September 18, 2015 at 12:49pm
बहुत सुन्दर गजल।  ढेरों दाद कुबूल करें। सादर
Comment by Ravi Shukla on September 17, 2015 at 1:59pm
आदरणीय जयनित जी सुरीले अरकान पर कही आपकी ग़ज़ल के लिए दाद क़ुबूल करें । पर यही बह्र ग़ज़ल से पहले लिख दे तो मंच का अनुशासन बना रहेगा ।
तीसरे शेर में फ़िदा इन्ही अदाओ में ...इन्ही लफ्ज़ फिट नही हो रहा देख लीजियेगा
चौथे शेर में आंचलिक लफ्ज़ की खुशबू मिल रही है जयनित जी सुन्दर
आखरी शेर क ऊला ऐसा प्रतीत होता है जल्दी में किया गया प्रयास है जितना सुन्दर भाव है उतना समय ऊला के शिल्प को मिलना चाहिए ।
बाकी गुणीजन बताएं ।
सुन्दर ग़ज़ल और उसके कथ्य के लिए बधाई स्वीकार करें । सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

anwar suhail updated their profile
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

न पावन हुए जब मनों के लिए -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

१२२/१२२/१२२/१२****सदा बँट के जग में जमातों में हम रहे खून  लिखते  किताबों में हम।१। * हमें मौत …See More
Friday
ajay sharma shared a profile on Facebook
Thursday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"शुक्रिया आदरणीय।"
Dec 1
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, पोस्ट पर आने एवं अपने विचारों से मार्ग दर्शन के लिए हार्दिक आभार।"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। पति-पत्नी संबंधों में यकायक तनाव आने और कोर्ट-कचहरी तक जाकर‌ वापस सकारात्मक…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब। सोशल मीडियाई मित्रता के चलन के एक पहलू को उजागर करती सांकेतिक तंजदार रचना हेतु हार्दिक बधाई…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार।‌ रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर रचना के संदेश पर समीक्षात्मक टिप्पणी और…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदाब।‌ रचना पटल पर समय देकर रचना के मर्म पर समीक्षात्मक टिप्पणी और प्रोत्साहन हेतु हार्दिक…"
Nov 30
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी लघु कथा हम भारतीयों की विदेश में रहने वालों के प्रति जो…"
Nov 30
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-128 (विषय मुक्त)
"आदरणीय मनन कुमार जी, आपने इतनी संक्षेप में बात को प्रसतुत कर सारी कहानी बता दी। इसे कहते हे बात…"
Nov 30
AMAN SINHA and रौशन जसवाल विक्षिप्‍त are now friends
Nov 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service