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छलकते आँसुओं को हम तभी क्यूं भूल जाते हैं..
किसी को याद करके हम कभी क्यूं मुस्कुराते हैं..
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न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,
न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..
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फ़िदा इन ही अदाओं पर हुऐ थे हम कभी यारों,
ज़रा सी बात पे वो रूठ कर फिर मान जाते हैं..
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नज़र की बात थी,पर वो कभी भी बूझ ना पाये,
ज़रा, हम हाल दिल का बोलने में हिचकिचाते हैं..
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भटक के इस शहर में,उब गया है मन मेरा अब तो,
कभी जो छोड़ आया, गाँव-घर मुझको बुलाते हैं..
(मौलिक व अप्रकाशित)
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जयनित कुमार वर्मा
अररिया,बिहार
Comment
आदरणीय जयनित भाई , गज़ल अच्छी कही है , दिली बधाइयाँ आपको । नीचे कुछ सलाहें आयीं हैं , खयाल कीजियेगा ।
मतले के विषय मे आ. मनोज भाई जी से सहामत हूँ -- उला मे आपने तभी शब्द का उपयोग किया है तो सानी मे जब , जब ही ऐसा कुछ कहने से बात पूरी होती । जैसे --- हम तभी जाते हैं - जब बुलाते हैं । मुझे भी आपका मतला अधूरा लगा ।
अच्छा मतला हुआ -----क्यूं को क्यूँ करलें
न हम अपनी वफ़ाओं को कभी भी छोड़ पाते हैं,
न अपनी बेवफाई से कभी वो बाज़ आते हैं..----शेर बहुत सुन्दर है बस तकाबुले रदीफ़ दोष से फ़ारिग कर लीजिये
भटक के इस शहर में,उब गया है मन मेरा अब तो,--ऊब को उब नहीं लिख सकते
थोड़े संशोधन पश्चात् ग़ज़ल निखर उठेगी शुभकामनायें
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आदरणीय जयनित जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है बधाई
सुन्दर प्रयास हुआ है भाई जयनित जी बधाई!शुभकामनायें!
बहुत सुन्दर गजल। ढेरों दाद कुबूल करें। सादर |
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